भारतीय शास्त्रीय संगीत का विश्वभर में प्रसार करनेवाले ग्वाल्हेर घराने के पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ग्वाल्हेर घराने के महान संगीत उपासक स्व. पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर। वे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में एक विशिष्ट प्रतिभा थे, जिन्होंने भारतीय संगीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे भारतीय समाज में संगीत और संगीतकार की उच्च प्रतिष्ठा के पुनरुद्धारक, समर्थ संगीतगुरु, अप्रतिम कंठस्वर एवं गायनकौशल के घनी भक्तहृदय गायक थे। उन्होंने लाहौर में ‘गांधर्व महाविद्यालय’ की स्थापना कर भारतीय संगीत को एक विशिष्ट स्थान दिया। इसके अलावा उन्होंने अपने समय की तमाम धुनों की स्वरलिपियों को संग्रहित कर आधुनिक पीढ़ी के लिए एक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। धनार्जन के लिए उन्होंने संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम भी किए। पलुस्कर संभवत: पहले ऐसे शास्त्रीय गायक हैं, जिन्होंने संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किए। बाद में विष्णु दिगम्बर पलुस्कर मथुरा आए और उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बंदिशें समझने के लिए ब्रज भाषा सीखी। बंदिशें अधिकतर ब्रजभाषा में ही लिखी गई हैं। इसके अलावा उन्होंने मथुरा में ध्रुपद शैली का गायन भी सीखा।

पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर जी का जन्म कुरूंदवाड में हुआ था। पलुस्कर जी को घर में संगीत का माहौल मिला था। क्योंकि उनके पिता दिगंबर गोपाल पलुस्कर धार्मिक भजन और कीर्तन गाते थे। उन्होंने अपनी संगीत शिक्षा ग्वाल्हेर घराने में शिक्षित पं॰ बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर से मिरज में आरंभ की। बारह वर्ष तक संगीत की विधिवत तालीम हासिल करने के बाद पलुस्कर के अपने गुरु से संबंध खराब हो गए। बारह वर्ष कठोर तप:साधना से संगीत शिक्षाक्रम पूर्ण करके सन्‌ १८९६ में समाज की कुत्या और अवहेलना एवं संगीत गुरुओं की संकीर्णता से भारतीय संगीत के उद्धार के लिए दृढ़ संकल्प सहित यात्रा आरंभ की। पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने उस समय प्रण किया था, कि संगीतज्ञो की दयनीय दशा को सुधारने और समाज में संगीत को उच्‍च स्‍थान दिलवाने और संगीत का सभी जगह प्रचार – प्रसार करेंगे। सन् १८९६ में राजाश्रय के सभी सुखो को त्‍याग कर संगीत के प्रचार और संगीत को उच्‍च स्‍थान दिलाने के लिए देशाटन के लिए प्रस्‍थान कर दिया। सबसे पहले वे सातारा गए वहां पर उनका भव्‍य स्‍वागत किया गया और उनका संगीत गायन का कार्यक्रम बहुत सफल रहा और सातारा के लोगो में संगीत और संगीतज्ञो के प्रति श्रद्धा उत्‍पन्‍न हुई। इस कार्यक्रम की सफलता के बाद पंडितजी ने भारत के अनेक जगहों पर भ्रमण किया और सभी जगहो पर अपने संगीत कार्यक्रमो से श्रोतागणो को मंत्रमुग्‍ध कर दिया कुछ उल्‍लेखनीय नाम है – लाहौर, दिल्‍ली, बडौदा, ग्‍वालियर, इलाहाबाद, भरतपुर, श्रीनगर आदि जिन जिन जगहों पर पंडितजी गये अपने संगीत गायन से श्रोताओं को संगीत की तरफ आकर्शित किया और संगीत का नाम बढाया।

संगीत का प्रचार और प्रसार करते करते पंडित विष्‍णू दिगम्‍बर जी ने यह ज्ञात किया कि सबसे पहले जो गीत गाए जा रहे है उन गीतों से श्रृंगार रस के अशोभनीय शब्‍दों को निकालकर भक्ति रस के शोभनीय सुन्‍दर शब्‍दों को रखा जाये और जगह जगह संगीत के कुछ विद्यालय स्‍थापित किए जाए जहां इन विद्यालयोंमें बालक एवं बालिकाओं को संगीत की अच्‍छी शिक्षा दी जा सके अत: पंडितजी ने बहुत से गीतो के शब्‍दो में परिवर्तन किये और ५ मई १९०१ को लाहौर में पहला संगीत स्‍कूल जिसका नाम ‘गांधर्व महाविधालय’ के नाम से स्‍थापना की। धनार्जन के लिए उन्होंने संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम भी किए। बाद में पलुस्कर जी मथुरा आए और उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बंदिशें समझने के लिए ब्रज भाषा सीखी। बंदिशें अधिकतर ब्रजभाषा में ही लिखी गई हैं। इसके अलावा उन्होंने मथुरा में ध्रुपद शैली का गायन भी सीखा। पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने तीन खंडों में ‘संगीत बाल-बोध’ नामक पुस्तक लिखी और १८ खंडों में रागों की स्वरलिपियों को संग्रहित किया। इसके अतिरिक्त पं. पलुस्कर ने ‘स्वल्पालाप-गायन’, ‘संगीत-तत्त्वदर्शक’, ‘राग-प्रवेश’ तथा ‘भजनामृत लहरी’ इत्यादि नामक पुस्तकों की रचना की।

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