भारतीय शास्त्रीय संगीत के सुप्रसिद्ध शहनाई वादक स्व. उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ। बिस्मिल्ला खाँ का जन्म बिहारी मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खाँ और मिट्ठन बाई के यहाँ बिहार के डुमराँव के ठठेरी बाजार के एक किराए के मकान में हुआ था। उस रोज भोर में उनके पिता पैगम्बर बख्श राज दरबार में शहनाई बजाने के लिए घर से निकलने की तैयारी ही कर रहे थे कि उनके कानों में एक बच्चे की किलकारियां सुनाई पड़ी। अनायास सुखद एहसास के साथ उनके मुहं से बिस्मिल्लाह शब्द ही निकला। उन्होंने अल्लाह के प्रति आभार व्यक्त किया। हालांकि उनका बचपन का नाम कमरुद्दीन था। लेकिन वह बिस्मिल्लाह के नाम से जाने गए। वे अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। उनके खानदान के लोग दरवारी राग बजाने में माहिर थे जो बिहार की भोजपुर रियासत में अपने संगीत का हुनर दिखाने के लिये अक्सर जाया करते थे।
उस्ताद ऐसे बनारसी थे जो गंगा में वज़ू करके नमाज़ पढ़ते थे और सरस्वती को याद कर शहनाई की तान छेड़ते थे। इस्लाम में संगीत के हराम होने के सवाल पर हंसकर कहते थे, ‘क्या हुआ इस्लाम में संगीत की मनाही है, क़ुरान की शुरुआत तो ‘बिस्मिल्लाह’ से ही होती है।’ एक घटना का जगह-जगह ज़िक्र मिलता है कि एक बार उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान शिकागो विश्वविद्यालय में संगीत सिखाने के लिए गए थे। विश्वविद्यालय ने पेशकश की कि अगर उस्ताद वहीं पर रुक जाएं तो वहां पर उनके आसपास बनारस जैसा माहौल दिया जाएगा, वे चाहें तो अपने करीबी लोगों को भी शिकागो बुला सकते हैं, वहां पर समुचित व्यवस्था कर दी जाएगी। लेकिन ख़ान साहब ने टका सा जवाब दिया कि ‘ये तो सब कर लोगे मियां! लेकिन मेरी गंगा कहां से लाओगे?’
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह हस्ती हैं, जो बनारस के लोक सुर को शास्त्रीय संगीत के साथ घोलकर अपनी शहनाई की स्वर लहरियों के साथ गंगा की सीढ़ियों, मंदिर के नौबतख़ानों से गुंजाते हुए न सिर्फ आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रीय महोत्सव में राजधानी दिल्ली तक लेकर आए, बल्कि सरहदों को लांघकर उसे दुनिया भर में अमर कर दिया. इस तरह मंदिरों, विवाह समारोहों और जनाजों में बजने वाली शहनाई अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी।