हिंदी भाषा के प्रसिद्ध भारतीय लेखक स्व. भीष्म साहनी। उन्हें हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वे आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। भीष्म साहनी मानवीय मूल्यों के सदैव हिमायती रहे। वामपंथी विचारधारा से जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखों से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाता है, लेकिन अपनी सहृदयता के लिए भी वे चिरस्मरणीय हैं।
भीष्म साहनी का गद्य एक ऐसे गद्य का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत करता है, जो जीवन के गद्य का एक ख़ास रंग और चमक लिए हुए है। उसकी शक्ति के स्रोत काव्य के उपकरणों से अधिक जीवन की जड़ों तक उनकी गहरी पहुँच है। भीष्म जी को कहीं भी भाषा को गढ़ने की ज़रुरत नहीं होती। सुडौल और खूब पक्की ईंट की खनक ही उनके गद्य की एकमात्र पहचान है। जहाँ तक प्रगतिवादी कथा आन्दोलन और भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है तो इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नहीं है। हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी। मार्क्सवाद ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा था। इसी मार्क्सवादी चिन्तन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन-जन तक पहुंचाने वालों में एक नाम भीष्म साहनी जी का भी है। स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भाँति भीष्म साहनी सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। जनवादी चेतना के लेखक उनकी लेखकीय संवेदना का आधार जनता की पीड़ा है। जनसामान्य के प्रति समर्पित उनका लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर अवलम्बित है।
एक कथाकार के रूप में भीष्म साहनी पर यशपाल और प्रेमचंद की गहरी छाप है। उनकी कहानियों में अन्तर्विरोधों व जीवन के द्वन्द्वों, विसंगतियों से जकड़े मध्य वर्ग के साथ ही निम्न वर्ग की जिजीविषा और संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है। जनवादी कथा आन्दोलन के दौरान भीष्म साहनी ने सामान्य जन की आशा, आकांक्षा, दु:ख, पीड़ा, अभाव, संघर्ष तथा विडम्बनाओं को अपने उपन्यासों से ओझल नहीं होने दिया। नई कहानी में उन्होंने कथा साहित्य की जड़ता को तोड़कर उसे ठोस सामाजिक आधार दिया। एक भोक्ता की हैसियत से भीष्म जी ने देश के विभाजन के दुर्भाग्यपूर्ण खूनी इतिहास को भोगा है, जिसकी अभिव्यक्ति ‘तमस’ में हम बराबर देखते हैं। जहाँ तक नारी मुक्ति की समस्या का प्रश्न है, उन्होंने अपनी रचनाओं में नारी के व्यक्तित्व विकास, स्वातन्त्र्य, एकाधिकार, आर्थिक स्वतन्त्रता, स्त्री शिक्षा तथा सामाजिक उत्तरदायित्व आदि उसकी ‘सम्मानजनक स्थिति’ का समर्थन किया है। एक तरह से देखा जाए तो साहनी जी प्रेमचंद के पदचिन्हों पर चलते हुए उनसे भी कहीं आगे निकल गए हैं।
यदि स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की बात की जाए तो भीष्म साहनी भारतीय गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरुष के जीवन को रथ के दो पहियों के रूप में स्वीकार करते हैं। विकास और सुखी जीवन के लिए दोनों के बीच आदर्श संतुलन और सामंजस्य का बना रहना अनिवार्य है। उनकी रचनाओं में सामंजस्यपूर्ण जीवन जीनेवाले आदर्श दम्पत्तियों को बड़ी गरिमा के साथ रेखांकित किया गया है। उनका विश्वास है कि स्त्रियों के लिए समुचित शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता व व्यक्तित्व विकास की सुविधा आदर्श समाज की रचना के लिए नितान्त आवश्यक है। वह स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के पक्षपाती थे, जो अवसर पाकर अपना चरम विकास कर सकती है। भीष्म साहनी परम्परा से चली आ रही विवाह की जड़ परम्परा को स्वीकार न करके भावनात्मक एकता और रागात्मक अनुबंधों को विवाह का प्रमुख आधार मानते थे। मानवीय मूल्यों पर आधारित उनकी धर्म भावना इंसान को इंसान से जोड़ती है न कि उन्हें पृथक् करती है। उनके उपन्यासों में शोषणविहीन समतामूलक प्रगतिशील समाज की स्थापना के साथ समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणाम, धर्म की विद्रूपता व खोखलेपन को उद्धाटित किया गया है।