ज़िंदगी की कश्मकश

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~ हिंदी कविता / तृप्ति गुप्ता

ज़िंदगी की इस दौड़ में
भागा चला जा रहा हूँ,
आगे क्या है पकड़ने की होड़ में
कुछ छोड़े चला जा रहा हूँ…

ना वक़्त ठहरता है,
ना मैं ही रुक पाता हूँ,
क्या कुछ हासिल कर लूँ फिर जी लूँगा सोचकर,
वक़्त खोता चला जा रहा हूँ…

जाने किस मोड पर मिली थी वह,
यह भी याद करने की फ़ुरसत नहीं,
पाने की उसको चाहत थी,
पाने के बाद उसके लिए ही वक़्त नहीं…

रुसवा भी कर देता हूँ,
फिर मना भी लेता हूँ उसको,
उन्हीं पल दो पल की ख़ुशियों का
तोहफ़ा दे देता हूँ उसको…

काश हर लम्हा
एक तोहफ़ा सा बनाकर दे सकता उसको,
बता सकता कि
चाहत है हमेशा ख़ुश रखने की उसको…

जता नहीं पाता अपने अरमान
मैं उसको कभी,
कह नहीं पाता उसके ही लिए
हैं ये धड़कनें सभी…

ऐसा लगता है मानो
मुद्दत सी हो गई हँसाए हुए उसको,
उसका दर्द पूछकर, सहलाकर
गले लगाए हुए उसको…

जाने कब चैन से बैठकर
उससे प्यार की दो बातें कर पाऊँगा ?
इस नौकरी से परे भी है एक छोटी सी मेरी दुनिया,
जाने कब ये समझ पाऊँगा?

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