हिंदी साहित्य के कथालेखक, व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई। वे हिंदी के पहले रचनाकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को हरिशंकर परसाई जी ने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में एक ख़ास प्रकार का अपनापन नज़र आता है।
हरिशंकर परसाई जबलपुर-रायपुर से निकलने वाले अख़बार ‘देशबंधु’ में पाठकों द्वारा पूछे जानेवाले उनके अनेकों प्रश्नों के उत्तर देते थे। अख़बार में इस स्तम्भ का नाम था- ‘पूछिये परसाई से’। पहले इस स्तम्भ में हल्के इश्किया और फ़िल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों की ओर भी प्रवृत्त किया। कुछ समय बाद ही इसका दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अख़बार का बड़ी बेचैनी से इंतज़ार करते थे। हरिशंकर परसाई जी की पहली रचना ‘स्वर्ग से नरक जहाँ तक’ है, जो कि मई, १९४८ में प्रहरी में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ पहली बार जमकर लिखा था। धार्मिक खोखला पाखंड उनके लेखन का पहला प्रिय विषय था। वैसे हरिशंकर परसाई कार्लमार्क्स से अधिक प्रभावित थे। परसाई जी की प्रमुख रचनाओं में “सदाचार का ताबीज” प्रसिद्ध रचनाओं में से एक थी जिसमें रिश्वत लेने देने के मनोविज्ञान को उन्होंने प्रमुखता के साथ उकेरा है।
हरिशंकर परसाई जी की भाषा में व्यंग्य की प्रधानता है। उनकी भाषा सामान्य और सरंचना के कारण विशेष क्षमता रखती है। उनके एक-एक शब्द में व्यंग्य के तीखेपन को स्पष्ट देखा जा सकता है। लोकप्रचलित हिंदी के साथ-साथ उर्दू, अंग्रेज़ी शब्दों का भी उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिया के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषाशैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। परसाईजी की एक रचना की यह पंक्तियाँ कि- ‘आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा’- ‘राजा रंक फ़कीर’ में सूफियाना अंदाज है, तो वहीं दूसरी ओर ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय है- “निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा ख़ून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशिया पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।”
संतों का प्रसंग आने पर हरिशंकर परसाई का शब्द वाक्य-संयोजन और शैली, सभी कुछ एकदम बदल जाता है, जैसे- “संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी- यह संत की विनय और आत्मस्वीकृति नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइंयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।” एक अन्य रचना में वे “पैसे में बड़ा विटामिन होता है” लिखकर ताकत की जगह ‘विटामिन’ शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं, जैसे बुढ़ापे में बालों की सफेदी के लिए ‘सिर पर कासं फूल उठा’ या कमज़ोरी के लिए ‘टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी।’ जब वे लिखते हैं कि ‘उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई’ तो इस ‘झम्म से’ लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नई-नवेली बहू द्वारा तेजी से थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार हो जाती है। एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है। जब वे लिखते हैं कि- ‘मौसी टर्राई’ या ‘अश्रुपात होने लगा’ तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आंसुओं की झड़ी लगी नजर आती है। ‘टर्राई’ जैसे देशज और ‘अश्रुपात’ जैसे तत्सम शब्दों के बिना रचना में न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य।
उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग किया जो हिन्दी व्यंग-साहित्य में अनूठा है। परसाई जी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते थे। उनकी मान्यता थी कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नही जा सकता। परसाई जी मूलतः एक व्यंगकार होने के नाते सामाजिक विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखते थे इसीलिए वे सच्चे व्यंग्यकार कहलाते थे। परसाई जी सामायिक समय का रचनात्मक उपयोग करते थे। उनका समूचा साहित्य वर्तमान से मुठभेड़ करता हुआ दिखाई देता है। परसाई जी हिन्दी साहित्य में व्यंग विधा को एक नई पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, इसके लिए हिन्दी साहित्य उनका ऋणी रहेगा।