आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि डॉ. रामविलास शर्मा। व्यवसाय से अंग्रेजी के प्रोफेसर, दिल से हिन्दी के प्रकांड पंडित और महान विचारक, ऋग्वेद और मार्क्स के अध्येता, कवि, आलोचक, इतिहासवेत्ता, भाषाविद, राजनीति-विशारद ये सब विशेषण उन पर समान रूप से लागू होते हैं। डॉ॰ रामविलास शर्मा के साहित्यिक जीवन का आरंभ १९३४ से होता है जब वह सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के संपर्क में आये। इसी वर्ष उन्होंने अपना प्रथम आलोचनात्मक लेख ‘निरालाजी की कविता’ लिखा जो चर्चित पत्रिका ‘चाँद’ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद वे निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं।
डॉ रामविलास शर्मा ने अपने उग्र और उत्तेजनापूर्ण निबन्धों से हिन्दी समीक्षा को एक गति प्रदान की है। इन्होंने सम्पूर्ण साहित्य नये और पुराने को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखने-परखने का प्रस्ताव बड़ी क्षमता के साथ किया है। शर्मा जी ने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों समीक्षा-पद्धतियों से अपने विचारों को पुष्ट करने का यत्न किया है। ‘समालोचक’ नामक एक पत्र भी इनका प्रकाशित हुआ। उनका लेखन काफ़ी हद तक ऐसे पूर्वाग्रहों से मुक्त है। इन्होंने इतिहास को समझने की जो दृष्टि दी, वह अल्पसंख्यक, दलित और स्त्री के नजरिए से तो इतिहास को परखती ही है, साथ ही साम्राज्यवादी यूरो-केंद्रित इतिहास-दृष्टि का खंडन भी करती है। रामविलास जी इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि पता नहीं कैसे लोग औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास पर विश्वास करते हैं? इसके लिए वे अशिक्षा को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखते हैं, “अग्रेजी राज ने यहाँ शिक्षण व्यवस्था को मिटाया, हिंदुस्तानियों से एक रुपए ऐंठा तो उसमें से छदाम शिक्षा पर खर्च किया। उस पर भी अनेक इतिहासकार अंग्रेज़ों पर बलि-बलि जाते हैं।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।