हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र के ज्येष्ठ व्यक्तिमत्त्व कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’

हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र के ज्येष्ठ व्यक्तिमत्त्व कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’। लेखन ’प्रभाकर’ जी के लिये लोकरंजन का माध्यम नहीं था। उनका लेखन नागरिकता के गुणों का विकास करने के सदैव प्रेरित था! ‘प्रभाकर’ जी उदार, राष्‍ट्रवादी तथा मानवतावादी विचारधारा के व्‍यक्ति थे, अत: देश-प्रेम और मानवता के अनेक रूप उनकी रचनाओं में देखने को मिलते है। पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्‍होंने निहित स्‍वार्थों को छोड़कर समाज में उच्‍च आदर्शों को स्‍थापित किया और हिन्‍दी साहित्य को नवीन शैली-शिल्‍प से सुशोभित किया। उन्‍होंने संस्‍मरण, रेखाचित्र, यात्रा-वृत्तान्‍त, रिपोर्ताज अादि लिखकर साहित्‍य-संवर्द्धन किया। ‘नया जीवन’ और ‘विकास’ नामक समाचारपत्र के माध्‍यम से तत्‍कालीन राजनीतिक, सामाजिक, तथा शैक्षणिक समस्‍याओं पर इनके निर्भीक एवं आशावादी विचारों का परिचय प्राप्‍त होता है। वे कहते थे – “हमारा काम यह नहीं कि हम विशाल देश में बसे चंद दिमागी अय्याशों का फालतू समय चैन और खुमारी में बिताने के लिये मनोरंजक साहित्य का मयखाना हर समय खुला रखें। हमारा काम तो यह है कि इस विशाल और महान देश के कोने-कोने में फैले जन साधारण के मन में विश्रंखलित वर्तमान के प्रति विद्रोह और भव्य भविष्य के निर्माण की श्रमशील भूख जगायें।”

कन्‍हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी की भाषा में अद्भुत प्रवाह विद्यमान थी। वे अपनी भाषा में मुहावरों एवं उक्त्यिों का सहज प्रयोग करते थे। अलंकारिक भाषा से इनकी रचनाऍं कविता जैसा सौन्‍दर्य प्राप्‍त कर गयी। इनके वाकय छोटे-छोटे एवं सुसंगठित रहते थे, जिनमें सूक्तिसम संक्षिप्‍तता तथा अर्थ-गांभीर्य रहता था। इनकी भाषा में व्‍यंग्‍यात्‍म्‍कता, सरलता, मार्मिकता, चुटीलापन तथा भावाभिव्‍यक्ति की क्षमता दिखाई देती है। प्रभाकर जी हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरण एवं ललित निबन्ध लेखकों में से एक हैं। यह दृष्टव्य है कि उनकी इन रचनाओं में कलागत आत्मपरकता होते हुए भी एक ऐसी तटस्थता बनी रहती है कि उनमें चित्रणीय या संस्मरणीय ही प्रमुख हुआ है – स्वयं लेखक ने उन लोगों के माध्यम से अपने व्यक्तित्व को स्फीत नहीं करना चाहा है। उनकी शैली की आत्मीयता एवं सहजता पाठक के लिए प्रीतिकर एवं हृदयग्राहिणी होती है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी की सृजनशीलता ने भी हिन्दी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने उन्हें ‘शैलियों का शैलीकार’ कहा था।

लेखक की भूमिका के प्रति उनका दायित्वबोध कितना गहरा था इसका एक उदाहरण सुनिए किसी अवसर पर नेहरू जी ने उनसे पूछा – “प्रभाकर जी, आज कल क्या कर रहे हो ?” उन्होंने कहा – “आपके और अपने बाद का काम कर रहा हूं।” जब नेहरू जी ने चौंक कर पूछा – “क्या मतलब हुआ इसका ? ” तो प्रभाकर जी ने जवाब दिया – “पंडित जी, आज देश की शक्ति पुल, बांध, कारखाने और ऊंची – ऊंची इमारतें बनाने में लगी है। ईंट – चूना ऊंचा होता जा रहा है और आदमी नीचा होता जा रहा है। भविष्य में ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब देश का नेतृत्व ऊंचे मनुष्यों के निर्माण में शक्ति लगायेगा। तब जिस साहित्य की जरूरत पड़ेगी, उसे लिख-लिख कर रख रहा हूं।” वस्तुतः साहित्य के माध्यम से प्रभाकर जी गुणों की खेती करना चाहते थे और अपनी पुस्तकों को शिक्षा के खेत मानते थे जिनमें जीवन का पाठ्यक्रम था। वे अपने निबंधों को विचार यात्रा मानते थे और कहा करते थे – “इनमें प्रचार की हुंकार नहीं, सन्मित्र की पुचकार है, जो पाठक का कंधा थपथपाकर उसे चिंतन की राह पर ले जाती है।” ऐसे महान साहित्यकार को शत शत प्रणाम।

Latest articles

Related articles

Leave a reply

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!