तेलुगु भाषा के सुप्रसिद्ध कथालेखक, उपन्यासकार, नाटककार एवं निबंधकार त्रिपुरनेनी गोपीचंद। उन्होंने समाज और जीवन से संबंधित सच्चाइयों को उजागर करने के लिए साहित्य को माध्यम बनाया और जनता ऐसे विषयों पर सोचने के लिए मजबूर किया। उनका कथन है की, वास्तु और शिल्प में दोनों में शिल्प वास्तु के लिए है। मनोरंजन साहित्य का प्रयोजन नहीं है, अपितु सामाजिक परिवर्तन का द्योतक है।
गोपीचंद जी भी अन्य रहनकारों की भाँति अपने परिवेश से जुड़े साहित्यकार है। अतः उनकी रचनाओं में गाँव से लेकर शहर तक के जीवन का परिवेश दिखाई देता है। संवेदनशील साहित्यकार के रूप में गोपीचंद जी ने देखा की समसामायिक समाज में अंधविश्वास, असमानताएँ, विसंगतियाँ, मूल्यऱ्हास, विद्रूपताएँ चारों ओर व्याप्त हैं। इनके उन्मूलन हेतु उन्होंने, कहानी, उपन्यास, नाटकोंका सृजन किया। उनकी मान्यता थी की जबतक समाज जागृत नहीं होगा तबतक सामाजिक विसंगतियोंका उन्मूलन नहीं होगा।
गोपीचंद जी के साहित्य में एक ओर सामजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं का अंकन है तो दूसरी ओर आधुनिकता और परंपरा की टकराहट है। मृत्युबोध और पीढ़ी अंतराल के साथ साथ उनके साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यांक विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श भी उल्लेखनीय है। भाषा और शिल्प की दृष्टी से गोपीचंद जी का साहित्य तेलुगु भाषा में विलक्षण देन हैं।