तवायफ़

– प्राची गोंडचवर / नज़्म /

अक़ीदत को मेरी कोठा समझा था,
के मोहब्बत को मेरी मोहरा समझा था,
कर दिया क़त्ल रूह का इस कद्र,
के आख़िरी आँसू भी ना पलकों में बचा था..

रूहानियत जिस्म की ग़ुलाम नही होती,
ये कोई रूमी भी हँस के कहता था!
इबादत का सुरमा चढ़ाये आँखों में-
पलकों पे शर्म का गौहर रख्खा था..

इल्म के परदे थे चारसू लटके,
इक नूर ही प्यार का पार जाए!
एक तेरे-मेरे बीच ख़ुदाई का चिलमन-
भी छू जाऊँ मैं तो वो भी फ़िसल जाए..

राख़ में लिपटी शोलों की काया हूँ,
ज़माने के चौखट की हवाएँ ना दीजे,
के पलभर में चिंगारी होकर उठे है,
ग़ुरूर के पत्थर भी यूँ पिघल जाए..

वो कहते तवायफ़ मुझे; मैंने अल्लाह!
एक इश्क़ किया है बाख़ुदा हद से ज़्यादा…
रिश्वत गुलों को ना खुशबू की दीजे
के दिखता है ख़ूब चाँद भी गर हो आधा..

मैंने आयत समझ पढ़ ली गालियाँ सभी-
जो ख़ातिर मेरे लोगों ने दी थी मुझको;
मेरी तौहीन मैंने अज़ान जैसे सुनली-
जो ख़िलते है गुल मेरे कानों में अब तो..

क़ुदरत ने बख़्शा रंग लाल तोहफ़े में,
मैंने कोख़ में अब्र जैसा संभाला,
तू भूले है नापाक इस ख़ून में ही-
लिपटे हुए तुझको है निकाला!

जो अंधेरों में तुम नाम लेते हो,
उजालों में जो दाग़ जैसा लगे है,
मैं गौहर हूँ, हुस्ना हूँ, मल्का-ए-फ़न हूँ-
मैं अनवर ख़ुदा का जो सच्चा लगे है!

From the diary of π – प्राची गोंडचवर

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