आधुनिक उड़िया साहित्य के जनक फ़क़ीर मोहन सेनापति

आधुनिक उड़िया साहित्य के जनक फ़क़ीर मोहन सेनापति। ओड़िआ कहानी एवं उपन्यास रचना में उनकी बिशिष्ट पहचान रही है। इनका आविर्भाव हुआ था संक्रान्ति में और तिरोभाव भी संक्रान्ति में। इसी कारण ओड़िआ साहित्य-जगत् में फकीरमोहन ‘”संक्रान्ति-पुरुष’ के रूप में चर्चित हुए हैं। इस संक्रान्ति के कारण से ही संभवतः इनकी लेखनी से साहित्य-क्षेत्र में एक विशेष क्रान्ति आई और एक नव्य युग का सूत्रपात हुआ। फकीरमोहन प्रथम ओड़िआ साहित्यकार हैं, जिनकी कहानियों और उपन्यासों में तत्कालीन समाज के अति नगण्य, दीन हीन चरित्र सारिआ, भगिआ आदि दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी लिखी कहानियों में ‘रेवती’, ‘पैटेण्ट्‍‍ मेडिसिन्‌‍’, ‘डाक-मुन्सी’, ‘सभ्य जमीदार’ प्रमुख उल्लेखनीय हैं।

‘रेवती’ उनकी पहली कहानी है, जहाँ तत्कालीन समाज में नारी-शिक्षा एवं नारी-जागरण के लिये प्रथम उन्मेष का सूत्रपात हुआ। ‘पैटेण्ट् मेडिसिन्‌’ कहानी के नायक मद्यप स्वामी चन्द्रमणिबाबु को सही रास्ते में लाने के लिये पत्नी ने इस्तेमाल किया झाडू का, जो ‘पैटेण्ट् मेडिसिन्‌’ बन गया है। ‘डाक-मुन्सी’ में एक अंग्रेजी-पढ़ा युबक गोपाल अपने वृद्ध ग्रामीण रुग्ण पिता हरिसिंह को अपने आवास मे निकाल देता है। इनके अलावा फकीरमोहन ने अनेक कहानियाँ लिखीं, जो पाठक-मन में समादृत हुईं।
उनके उपन्यासों में ‘छमाण आठ गुण्ठ’, ‘मामुँ’, ‘प्रायश्चित्त’, ‘लछमा’, आदि प्रमुख हैं।

प्रसिद्ध उपन्यास ‘छ माण आठ गुण्ठ’ ओड़िआ सिनेमा के रूप में लोकप्रिय बन चुका है। इस उपन्यास का नायक गाँव का टाउटर रामचन्द्र मंगराज धन-लोलुपता के कारण दिलदार मियाँ की जमीदारी और सारिआ-भगिआ की छह माण आठ गुण्ठ किसानी जमीं को कैसे हड़पने की चेष्टा करता है, उसका वास्तव चित्रण हृदयस्पर्शी है। ‘मामुँ’ उपन्यास में शहरी दुर्वृत्त नाजर नटवर अत्यन्त स्वार्थी और लोभी बनकर भगिनी की सम्पत्ति को अधिकार करने षडयन्त्र में प्रबृत्त होता है। ‘प्रायश्चित्त’ उपन्यास में सारे शिक्षित, सभ्य और भद्र लोगों के आधुनिक दर्शन और रुचि के बारे में चित्रण हुआ है।

कहानीकार सारे खल चरित्रों के कुकर्मों की कुपरिणति के बारे में भी सचेतन हैं और वैसी कुफलों की वर्णना भी की है। चम्पा, चित्रकला आदि खल-नायिकाओं का चित्रण भी स्वाभाविक एवं जीवन्त प्रतीत होता है। नारी-पात्रों के मार्मिक चित्रण करने में भी फकीरमोहन की निपुणता प्रशंसनीय है। ‘रेवती’, ‘राण्डिपुअ अनन्ता’ प्रमुख कुछ कहानियाँ भी दूरदर्शन में प्रसारित हुई हैं। उनकी रचनाओं में विषयवस्तु, चरित्रचित्रण, भावनात्मक विश्लेषण एवं वर्णन-चातुरी अत्यन्त आकर्षणीय हैं। भाव और भाषा का उत्तम समन्वय परिलक्षित होता है। प्रकृति-जगत्‌ की सुरक्षा के साथ पर्यावरण में परिष्कृति और स्वच्छता लाने हेतु भी उनका सारस्वत प्रयास सराहनीय है।

कवि के रूप में उन्होंने ‘अबसर-बासरे’, ‘बौद्धावतार काव्य’ आदि लिखे, जिसमें कवि की भावात्मकता एवं कलात्मकता का रम्य रूप दृश्यमान होता है। ‘उत्कलभ्रमणं’ काव्य में हास्य-व्यंग्य वर्णन सहित ओड़िशा के तत्‍कालीन साहित्य-साधकों की बहुत उत्साहभरी प्रशंसा की है। ‘आत्मजीवनचरित’ में उन्होंने अपने संघर्षमय जीवन की विशद अवतारणा की है। सांवादिकता-क्षेत्र में भी उनका विशेष अवदान रहा है। ‘संवादबाहिनी’ और ‘बोधदायिनी’ पत्रिकाओं के प्रकाशन की दिशा में ओड़िआ सांस्कृतिक संग्राम के एक प्रवीण सेनापति रहे। वास्तविक कर्मक्षेत्र में भी उन्होंने विचक्षणता के साथ कर्त्तव्य संपादन किया था। जमीदार के विरुद्ध केन्दुझर में घटित ‘प्रजा-मेलि’ (भूयाँ जाति का आन्दोलन) में अपने तीक्ष्ण बुद्धि से परिस्थिति को सम्हाल लिया था।

उनकी रचनाओं में समसामयिक समाज मे प्रचलित अन्धविश्वास, कुसंस्कार, दुर्बलों के प्रति धनियों का अन्याय-अत्याचार, बाल्यविवाह की कुपरिणति आदि तत्त्व दृग्गोचर होते हैं। इन सबके विरुद्ध फकीरमोहन ने क्रान्तिकारी लेखनी जोरदार चालना की। उनकी लालिका (पैरोडी) रचनाओं में सांस्कृतिक भित्ति, हास्य परिवेषण और मनोरंजन के कई उपादान सन्निवेशित हुए हैं। विदग्ध तथा साधारण पाठक दोनों के लिये ये लालिकायें भावभरी और आनन्ददायिनी अनुभूत होती हैं। शैशव से लेकर जीवन की आखरी साँस तक कई दुःख, पीड़ा, लांछना, प्रवंचना आदि से जंजालभरी राहों पर फकीरमोहन के पैर क्षताक्त रहे। पीड़ा और कारुण्य़ से उनका जीवन गाम्भीर्यपूर्ण था। परन्तु दूसरों के मुख में उन्होंने ऐसी हास्य-भंगी निखार दिखलायी, जिसकी कोई तुलना नहीं। वास्तव में फकीरमोहन थे एक युगप्रवर्त्तक, समाज-संस्कारक, जनजीवन के यथार्थ चित्रकार, नवीनता के वार्त्तावह और कथासाहित्य के उन्नायक। आधुनिक ओड़िआ कथासाहित्य के जनक फकीरमोहन सेनापति के जीवन और रचनाओं के बारे में अब तक बहुत शोधग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं।

वास्तव जगत् के कर्मक्षेत्र में ओड़िआ साहित्य के फकीरमोहन एवं हिन्दी साहित्य के प्रेमचन्द – ये दोनों प्रसिद्ध कथाकार परस्पर तुलनीय हैं। इनकी कहानियों में तत्कालीन समाज में अनुभूत भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थनीतिक और सांस्कृतिक अवस्थाओं का सम्यक रूपायन किया गया है। सामाजिक द्वन्द्व का समाधान, न्याय-अन्याय-विचार, आदर्शवाद, नैतिकता, परस्पर सद्‍भाव प्रतिष्ठा आदि दोनों कहानीकारों का अभीष्ट है। भारतीय भावधारा दोनों की रचना में परिप्लुत है। पाश्चात्य शिक्षा-सभ्यता के प्रति व्यंग्य और कटाक्ष सहित स्वकीय भाषा-साहित्य के प्रति गभीर अनुराग दोनों में अनुभूत होता है। दोनों गाँव में जन्मे थे निम्न मध्यवित्त परिवार में।

दुःख- जंजाल संघर्षों से भरा था दोनों का जीवन। तत्कालीन सामाजिक स्थिति में व्यापक थे अनेक तत्त्व, जैसे ग्रामीण जीवन में आई जातिप्रथा, धनी-गरीब का भेदभाव, नारी-जाति प्रति अत्याचार और शोषण, बाल्यविधवा समस्या, कुसंस्कार, अन्धविश्वास आदि। इन सबका निराकरण हेतु दोनों का सारस्वत प्रयास अदम्य रहा। किसानों की दुर्दशा दूर करने दोनों की लेखनी तत्पर रही। पुंजिपतियों की शोषणक्रिया से किसानों की मुक्ति के लिये उनका सारस्वत उद्यम जारी रहा। प्रेमचन्द का किसान होरी और फकीरमोहन का भगिआ – इन दोनों में अनेक समानता परिलक्षित होती है। भारतीय साहित्य-जगत्‌‍ में फकीरमोहन एवं प्रेमचन्द – ये दोनों स्वाधीनचेता महान कथाकार वास्तव में चिरस्मरणीय एवं अमर हैं।

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