कन्नड भाषा के कवि, उपन्यासकार, समालोचक, नाटककार और निबंध लेखक स्व. विनायक कृष्ण गोकाक। गोकाक जी ने कन्नड़ कविता को स्वतंत्रता का उपहार दिया, जिससे नए क्षितिज खुले और नई संभावनाओं का जन्म हुआ। प्राच्य और पाश्चात्य, अतीत और वर्तमान, वर्तमान और भविष्य, मानवतावाद और अध्यात्म तथा राष्ट्रीय और वैश्विक के मध्य सामंजस्य की स्थापना में जीवन भर क्रियाशील गोकाक समन्वय के सिद्धांत पर आरूढ़ थे।
चौथे दशक के आरंभ मे काव्य की ओर उन्मुख युवक गोकाक दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे के प्रभाव में आए और उनके नेतृत्व में काव्य के एक नए युग का सूत्रपात करने में संलग्न कवि मंडली के एक सदस्य के रूप मे गोकाक ने स्वप्नों और आदर्शों, आध्यात्यिक अभिलाषाओं और काव्यगत प्रेरणाओं की स्वच्छंदवादी कविता का सृजन किया, ‘कलोपासक’ (१९३४) में नई पंरपराओं के गीत संकलित हैं। ‘समुद्र गीतेगळु’ (१९४०) की कविताएँ एक नई ताज़गी देती हैं और उनमें गोकाक की वह वाणी मुखर हुई है, जिसमें सहज अभिव्यंजना और फक्कड़पन के साथ गीतात्मकता है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत की नई प्रवृतियों की पूर्ति उन्होंने एक अभिनव काव्य-शैली के सूत्रपात द्वारा की, इस कविता को उन्होंने इलियट,पाउंड और फ़्राँसीसी प्रतीकवादियों के अनुसरण में ‘नव्य’ कविता कहा। नए विषयों, नई कल्पनाओं, नई कल्पनाओं, नई लयों, नई वक्रोक्तियों और व्यंग्यों के प्रयोगों से भरपूर ‘नव्य कवितेगळु’ (१९५०) ने कन्नड़ कविता में एक ‘नव्य युग’ का सूत्रपात किया। विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में ‘जननायक’ (१९३९) और ‘युगांतर’ (१९४७) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें “कन्नड़ भाषा में आधुनिक समालोचना का जनक” कहा जाता है। उनकी आरंभिक आलोचनात्मक रचनाओं पर पश्चिम की गहरी छाप है, किंतु उन्होंने शीघ्र ही कॉलरिज, अरबिंद और भारतीय काव्यशास्त्र को मिला कर अपना-अपना अलग सिद्धांत ढाल लिया, जिसे वह साहित्य का समन्वयकारी रुप कहते थे।