हिन्दी भाषा के प्रमुख साहित्यकार स्व. राधाकृष्ण। राधाकृष्ण जी रांची में एक समाज कल्याण विभाग की पत्रिका के संपादक थे। उनमें चुटीले व्यंग लिखने की अद्भुत शक्ति थी। उनकी कहानियों में देश एवं समाज की कुरीतियों पर गहरा व्यंग्य दिखाई देता है। भाषा सरल, सीधी किन्तु हृदयग्राही होने के कारण उनकी रचनाएँ पाठको के मन को छु लेती है।
राधाकृष्ण केवल कथाकार ही नहीं थे, हालांकि उन्होंने लेखन की शुरुआत कहानियों से की लेकिन आगे चलकर उपन्यास लिखे, संस्मरण भी लिखा, हास्य-व्यंग्य नाटक, एकांकिका भी लिखी। हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद जी ने उनकी कहानियों से गदगद होकर कहा था की, “मैंने छोटानागपुर के कोयला खान से एक हिरा ढूँढ निकाला है। हिन्दी के उत्कृष्ट कथा-शिल्पियों की संख्या काट-छांटकर पाँच भी कर दी जाए तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा।”
राधाकृष्ण जी की प्रतिभा, लेखनकार्य, अनुभवोंका व्यापक संसार, विभिन्न जातियों-संस्कृतियों के संपर्क ने एक बड़े और ईमानदार लेखक को स्थापित किया। वे ‘राधाकृष्ण’ और ‘घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी’ दो नामों से लिखा करते थे। घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से हास्य-व्यंग्य और राधाकृष्ण नाम से गंभीर एवं अन्य विधागत रचनाएँ। राधाकृष्ण की पहली कहानी ‘सिन्हा साहब’ १९२९ ई. की ‘हिन्दी गल्प माला’ में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद क्रमशः महावीर, संदेश, भविष्य, जन्मभूमि, हंस, माया, माधुरी, जागरण आदि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं और देखते-देखते पूरे हिन्दी जगत में अप्रतिम कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये। इन्होंने महावीर, हंस, माया, संदेश, झारखंड, कहानी, आदिवासी आदि पत्रिकाओं का सम्पादन किया था। ऐसा विरल साहित्यकार हिंदी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि महान साहित्यकारोंको अपना प्रशंसक बना लिया था उसे हमारे हिंदी साहित्य के आलोचकोंने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?