हिंदी भाषा के लेखक एवं नाटककार स्व. जगदीशचन्द्र माथुर। वे उन साहित्यकारों में से थे जिन्होंने आकाशवाणी में काम करते हुए हिन्दी की लोकप्रयता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। रंगमंच के निर्माण, निर्देशन, अभिनय, संकेत आदि के संबंधमें उनको विशेष सफलता मिली है। नाटककार के रूप में विख्यात माथुर जी ने अपनी विशिष्ट शैली में चरित लेख, ललित निबन्ध और नाट्य–निबन्ध भी लिखे हैं।
जगदीशचन्द्र माथुर जी के प्रारंभिक नाटकों में कौतूहल और स्वच्छंद प्रेमाकुलता है। ‘भोर का तारा’ में कवि शेखर की भावुकता पर्यावरण में घटित करने या रचने का मोह भी प्रारंभ से मिलता है। परंतु समसामयिक को अनुभव के रूप में अनुभूत करके उसकी प्रामाणिकता को संस्कृति के माध्यम से सिद्ध करने का जो आग्रह उनके नाटकों में हैं उसकी रचनात्मक संभावना का प्रमाण ‘कोणार्क’ में है। परंपरा को माध्यम और संदर्भ के रूप में प्रयोग करने की कला में माथुर सिद्दहस्त थे। परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि यही उनका सब कुछ है, बल्कि उन्होंने रीढ़ की हड्डी आदि ऐसे नाटक भी लिखे जिनका संबंध समाज के भीतर के बदलते रिश्तों और मानवीय संबंधों से है। ‘शारदीया’ के सारे नाटकों में समस्या को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का आभास अवश्य है, परंतु समस्या मात्र का परिवृत्त इतना छोटा है कि वह किसी व्यापक सत्य का आधार नहीं बन पाती। वस्तुतः माथुर छायावादी संवेदना के रचनाकार हैं। यह संवेदना ‘भोर का तारा’ से लेकर ‘पहला राजा’ तक में कमोबेश मिलती है। यह अवश्य है कि यह छायावादिता नाटक के विधागक संस्कार और यथार्थ के प्रति गहरी संसक्ति के कारण ‘कोणार्क’ और ‘पहला राजा’ में काफ़ी संस्कारित हुई है।
लेखन में उनकी इतनी रुचि थी कि जिन विभागों में उन्होंने काम किया उनकी समस्याओं के सम्बन्ध में भी बराबर लिखा। उनकी आरम्भिक रचनाएँ उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं चाँद, भारत, माधुरी, सरस्वती और रूपाभ में छपती थी। बिहार में शिक्षा सचिव के पद पर काम करते हुए उन्होंने कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना की और उनमें गहरी रुचि ली। अपने विचारों और मूल्यों में श्री माथुर ग्रामीण और नागर, लोक और शास्त्रीय संस्कारों व परम्पराओं के समन्वय के पक्षधर थे। इस पक्षधरता का स्वर उनके साहित्य में पूर्णत मुखर है। उन्होंने अपनी रचनाओं की प्रकृति, रचना–प्रक्रिया और अपने विचारों एवं विश्वासों के बारे में पुस्तकों की भूमिकाओं में बहुत–कुछ लिखा है, जो उनके साहित्य को समझने में सहायक है।
जगदीशचंद्र माथुर को याद करना, सूचना संचार माध्यमों में हुई क्राँति को याद करना है। उनकी स्मृति को लेकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली ने एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया। इसकी वजह थी कि जगदीशचंद्र माथुर हिंदी के बहुत महत्वपूर्ण नाटककार थे। यों तो जयशंकर प्रसाद के बाद नाटक लेखन के क्षेत्र में लक्ष्मी नारायण मिश्र एक बड़ा नाम हैं पर इतिहास के परिप्रेक्ष्य में प्रसाद की परंपरा से अलग हटकर प्रयोगशील नाटक लिखने की पहल जगदीशचंद्र माथुर ने अपने अप्रतिम नाटक ‘कोणार्क’ से की। वे एक सिद्धहस्त एकांकीकार भी थे। उनकी प्रयोगशीलता का सफल प्रमाण यही है कि उनके सम्पूर्ण नाटक ‘कोणार्क’ में एक भी नारी पात्र नहीं है लेकिन फिर भी वह बेहद सफलतापूर्वक मंचित होकर दर्शकों का चहेता मंच नाटक बना रहा है। और आज भी वह कई संदर्भों में चर्चा का केंद्र बना रहता है। यह मामूली बात नहीं है क्योंकि ‘कोणार्क’ नाटक की रचना आज से लगभग छह दशक पहले हुई थी।
भारत में टेलीविज़न शुरू होने जा रहा था। माथुर साहब ने ही टीवी का नाम दूरदर्शन रखा था। दूरदर्शन का उद्घाटन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था। उद्घाटन के बाद स्टाफ मीटिंग में माथुर साहब ने कहा था, “सरकार किसी भी भाषा से चलाई जाए पर लोकतंत्र हिंदी और भारतीय भाषाओं के बल पर ही चलेगा। “हिंदी ही सेतु का काम करेगी, सूचना और संचार तंत्र के सहारे ही हम अपनी निरक्षर जनता तक पहुँच सकते हैं। भारत के बहुमुखी विकास की क्राँति यहीं से शुरू होगी।” उन्होंने कहा था कि ,”लोक संस्कृति के बिना शास्त्रीय कलाओं की शुचिता और सौंदर्य बाधित होगा। हमें एक क्षेत्र की लोक संस्कृति का अंतरसम्बंध दूसरे क्षेत्र की लोक संस्कृति से स्थापित करना पड़ेगा।” उन्होंने उस समय कहा था, “दूरदर्शन जैसे माध्यम की शक्ति को पहचानिए और जैसा कि पश्चिम के मीडिया पंडित कहते हैं, ‘मीडिया इज़ द मैसेज’ इस भ्रम को तोड़िए और साबित कीजिए कि ‘मैन बिहाइंड मीडिया इज़ द मैसेज’।” [1]
उन्होंने ही ‘एआईआर‘ का नामकरण ‘आकाशवाणी‘ किया था। टेलीविज़न उन्हीं के जमाने में वर्ष १९५९ में शुरू हुआ था। हिंदी और भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों को वे ही रेडियो में लेकर आए थे। सुमित्रानंदन पंत से लेकर दिनकर और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे दिग्गज साहित्यकारों के साथ उन्होंने हिंदी के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूचना संचार तंत्र विकसित और स्थापित किया था।
“नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है।”
– जगदीशचन्द्र माथुर
[1] – कमलेश्वर। सूचना संचार क्राँति के जनक माथुर साहब (हिन्दी) बीबीसी। अभिगमन तिथि: 29 दिसम्बर, 2014।