हिन्दी साहित्य के प्रेमचंदोत्तर युगीन कथाकार यशपाल

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक स्व. यशपाल। यथार्थ जीवन की नई प्रसंगोदभावनाद्वारा अपनी कहानियों से वाचकोंको प्रेरित करनेवाले यशपाल जी के लेखन की प्रमुख विधा उपन्यास थी, लेकिन अपने लेखन की शुरूआत उन्होने कहानियों से ही की। नई कहानी के दौर में स्त्री के देह और मन के कृत्रिम विभाजन के विरुद्ध एक संपूर्ण स्त्री की जिस छवि पर जोर दिया गया, उसकी वास्तविक शुरूआत यशपाल जी से ही होती है। आज की कहानी के सोच की जो दिशा है, उसमें यशपाल जी की कितनी ही कहानियाँ बतौर खाद इस्तेमाल हुई है। साहित्य के माध्यम से उन्होंने वैचारिक क्रान्ति की भूमिका तैयार करने का प्रयास किया।

यशपाल मुख्यत: मध्यमवर्गीय जीवन के कलाकार थे और इस वर्ग से सम्बद्ध उनकी कहानियाँ बहुत ही मार्मिक बन पड़ीं। मध्यवर्ग की असंगतियों, कमज़ोरियों, विरोधाभासों, रूढ़ियों आदि पर इतना प्रबल कशाघात करनेवाला कोई दूसरा कहानीकार नहीं है। दो विरोधी परिस्थितियों का वैषम्य प्रदर्शित कर व्यंग्य की सर्जना उनकी प्रमुख विशेषताएँ थी। यथार्थ जीवन की नवीन प्रसंगोदभावना द्वारा वे अपनी कहानियों को और भी प्रभावशाली बना देते थे।

वर्तमान और आगत कथा-परिदृश्य की संभावनाओं की दृष्टि से उनकी सार्थकता असंदिग्ध है। उनके कहानी-संग्रहों में पिंजरे की उड़ान, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ और उत्तमी की माँ प्रमुख हैं। उन्होंने किसी युटोपिया की जगह व्यवस्था की वास्तविक उपलब्धियों को ही अपना आधार बनाया था। यशपाल की वैचारिक यात्रा में यह सूत्र शुरू से अंत तक सक्रिय दिखाई देता है कि जनता का व्यापक सहयोग और सक्रिय भागीदारी ही किसी राष्ट्र के निर्माण और विकास के मुख्य कारक हैं। एक सफल कथाकार होने के साथ-साथ यशपाल अच्छे व्यक्तित्व-व्यंजक निबन्धकार भी थे। वे अपने दृष्टिकोण के आधार पर सड़ी-गली रूढ़ियों, ह्रासोन्मुखी, प्रवृत्तियों पर जमकर प्रहार करते थे। उन्होंने सरस तथा व्यंग्य-विनोद, गर्भ संस्मरण और रेखाचित्र भी लिखे हैं। यशपाल हर जगह जनता के व्यापक हितों के समर्थक और संरक्षक लेखक थे।

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