आधुनिक हिन्दी साहित्य के शीर्ष निर्माताओं में से एक नाटककार, पत्रकार, उपन्यासकार और निबन्धकार स्व. बालकृष्ण भट्ट।
बालकृष्ण भट्ट जी का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में ३ जून, १८४४ में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित वेणी प्रसाद था। पंडित वेणी प्रसाद जी की शिक्षा की ओर विशेष रुचि रहती थी, साथ ही इनकी पत्नी भी एक विदुषी महिला थी। अतः बालकृष्ण भट्ट जी की शिक्षा पर बाल्यकाल से ही विशेष ध्यान दिया गया था। प्रारंभ में इन्हें घर पर ही संस्कृत की शिक्षा दी गयी और १५-१६ वर्ष की अवस्था तक इनका यही क्रम रहा। इसके उपरान्त इन्होंने माता के आदेशानुसार स्थानीय मिशन के स्कूल में अंग्रेज़ी पढना प्रारंभ किया और दसवीं कक्षा तक अध्ययन किया। कुछ समय के लिए बालकृष्ण भट्ट ‘जमुना मिशन स्कूल’ में संस्कृत के अध्यापक भी रहे, पर अपने धार्मिक विचारों के कारण इन्हें पद-त्याग करना पड़ा। विवाह हो जाने पर जब इन्हें अपनी बेकारी खलने लगी, तब वह व्यापार करने की इच्छा से कोलकाता भी गए, परन्तु वे वहाँ से शीघ्र ही लौट आए और संस्कृत साहित्य के अध्ययन तथा हिन्दी साहित्य की सेवा में जुट गए। भारतेंदु जी से प्रभावित होकर उन्होंने हिंदी-साहित्य सेवा का व्रत ले लिया। भट्ट जी ने ‘हिन्दी प्रदीप’ नामक मासिक पत्र निकाला। इस पत्र के वे स्वयं संपादक थे। उन्होंने इस पत्र के द्वारा निरंतर ३२ वर्ष तक हिंदी की सेवा की। आज की गद्य प्रधान कविता का इन्हें जनक माना जाता है। बालकृष्ण भट्ट जी ने निबन्ध, उपन्यास और नाटकों की रचना करके हिन्दी को एक समर्थ शैली प्रदान की। वे पहले ऐसे निबन्धकार थे, जिन्होंने आत्मपरक शैली का प्रयोग किया था। बालकृष्ण भट्ट जी को हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, बंगला और फ़ारसी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। वे ‘भारतेन्दु युग’ की देदीप्यमान मौन विभूति होने के साथ-साथ ‘द्विवेदी युग’ के लेखकों के मार्गदर्शक और प्रेरणा स्त्रोत भी रहे।
भाषा की दृष्टि से अपने समय के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट जी का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने अपनी रचनाओं में यथाशक्ति शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया। भावों के अनुकूल शब्दों का चुनाव करने में वे बड़े कुशल थे। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया। उनकी भाषा में जहाँ तहाँ पूर्वीपन की झलक मिलती है, जैसे- समझा-बुझा के स्थान पर समझाय-बुझाय लिखा गया है। बालकृष्ण भट्ट जी की भाषा को दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है। द्वितीय कोटि में आनेवाली भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ तत्कालीन उर्दू, अरबी, फ़ारसी तथा आंग्ल भाषीय शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। वे हिन्दी की परिधि का विस्तार करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भाषा को विषय एवं प्रसंग के अनुसार प्रचलित हिन्दीतर शब्दों से भी समन्वित किया है। बालकृष्ण भट्ट जी की भाषा जीवंत तथा चित्ताकर्षक है। इसमें यत्र-तत्र पूर्वी बोली के प्रयोगों के साथ-साथ मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है, जिससे भाषा अत्यन्त रोचक और प्रवाहमयी बन गई है।
बालकृष्ण भट्ट जी की लेखन शैली को दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की शैली को परिचयात्मक शैली कहा जा सकता है। इस शैली में उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं। द्वितीय कोटि में आने वाली शैली गूढ़ और गंभीर है। इस शैली में भट्ट जी को अधिक नैपुण्य प्राप्त है। उन्होंने ‘आत्म-निर्भरता’ तथा ‘कल्पना’ जैसे गम्भीर विषयों के अतिरिक्त, ‘आँख’, ‘नाक’ तथा ‘कान’ आदि अति सामान्य विषयों पर भी सुन्दर निबन्ध लिखे हैं। उनके निबन्धों में विचारों की गहनता, विषय की विस्तृत विवेचना, गम्भीर चिन्तन के साथ एक अनूठापन भी है। यत्र-तत्र व्यंग्य एवं विनोद उनकी शैली को मनोरंजक बना देता है। उन्होंने हास्य आधारित लेख भी लिखे हैं, जो अत्यन्त शिक्षादायक हैं। भट्ट जी का गद्य, गद्य न होकर गद्यकाव्य-सा प्रतीत होता है। वस्तुत: आधुनिक कविता में पद्यात्मक शैली में गद्य लिखने की परंपरा का सूत्रपात बालकृष्ण भट्ट जी ने ही किया था। साहित्य की दृष्टि से भट्ट जी के निबन्ध अत्यंत उच्च कोटि के हैं। इस दिशा में उनकी तुलना अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध निबंधकार चार्ल्स लैंब से की जा सकती है। गद्य काव्य की रचना भी सर्वप्रथम भट्ट जी ने ही प्रारंभ की थी। ऐसे हिंदी के महान साहित्यकार को साहित्यकल्प की ओर से शत शत नमन। धन्यवाद।
साहित्यिक रचनाएं
निबन्ध संग्रह – साहित्य सुमन, भट्ट निबन्धावली।
उपन्यास – नूतन ब्रह्मचारी, सौ अजान एक सुजान।
नाटक – दमयंती स्वयंवर, बाल-विवाह, चंद्रसेन, रेल का विकट खेल।
अनुवाद – वेणीसंहार, मृच्छकटिक, पद्मावती।