बांग्ला भाषा की विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी। उन्होंने बांग्ला भाषा में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से उपन्यास तथा कहानियों से साहित्य को समृद्धशाली बनाया। अपने लेखन कार्य के साथ-साथ महाश्वेता देवी ने समाज सेवा में भी सदैव सक्रियता से भाग लिया और इसमें पूरे मन से लगी रहीं। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रहीं। महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। महाश्वेता देवी ने अपने कई उपन्यासों की तरह अपनी अनेक कहानियों में भी सदियों से मुख्यधारा से बाहर धकेली गई आदिवासी अस्मिता के प्रश्न को शिद्दत से उठाया है।
महाश्वेता जी की कई कहानियाँ आदिवासियों की प्रामाणिक संघर्ष गाथाएँ हैं बल्कि उन्हें महागाथाएँ कहना ज्यादा उचित होगा। इन महागाथाओं में आदिवासी समाज की चिंता कदाचित पहली बार बेचैनी के साथ प्रकट हुई। अपनी कथाकृतियों में हाशिए पर धकेले गए आदिवासी को नायक बनाकर महाश्वेता देवी हिंदी में प्रेमचंद तो बांग्ला में ताराशंकर बंद्योपाध्याय और मानिक बंद्योपाध्याय से भी आगे निकल गईं। प्रेमचंद और ताराशंकर किसान को नायक बना चुके थे तो मानिक बाबू मछुआरों को। उससे काफ़ी आगे जाकर महाश्वेता ने जनजातियों और आदिवासियों के विद्रोही नायकों को अपनी कथाकृतियों का नायक बनाया। महाश्वेता अपनी कहानियों में समाज को शोषण, दोहन और उत्पीड़न से मुक्त कराते संघर्षशील नायकों का संधान करती हैं।
“साहित्य को केवल भाषा-शैली और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मापदंड गलत हैं। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उसके समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में रखकर न देखने से उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। मैं पुराकथा पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ कि वास्तव में लोक-कथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविच्छिन्न धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं। यह अविच्छिन्न धारा भी वायवीय नहीं है बल्कि जात-पांत खेत और जंगल पर अधिकार और सबसे ऊपर सत्ता के विस्तार तथा उसके कायम रखने की पद्धति को केंद्र में रखकर निम्न वर्ग के मनुष्य के शोषण का क्रमिक इतिहास है।”
महाश्वेता जी की कहानियों में सामंती ताकतों के शोषण, उत्पीड़न, चल-छद्म के विरुद्ध पीड़ितों और शोषितों का संघर्ष अनवरत जारी रहता है। संघर्ष में वह मार भी खाता है पर थककर बैठ नहीं जाता। क्रूरता और बर्बरता में भी पीड़ित तबका टिके रहता है। कई उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों में भी आदिम जनजातीय स्रोतों से प्राप्त कथा तो है ही, जीवन और समाज के दूसरे ज्वलंत मुद्दों को भी उन्होंने साधिकार स्पर्श किया है। ‘रुदाली’ की कहानी में महाश्वेता जी ने औरत की अस्मिता का प्रश्न उम्दा तरीके से उठाया तो ‘अक्लांत कौरव’ में विकास और छद्म प्रगतिवाद की तीखी आलोचना की।
बांग्ला भाषा की विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी
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