हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा “नवीन”। आधुनिक हिन्दी कविता के विकास में उनका स्थान अविस्मरणीय है। ब्रजभाषा ‘नवीन’ की मातृभाषा थी। उनके प्रत्येक ग्रन्थ में ब्रजभाषा के भी कतिपय गीत या छन्द मिलते हैं। ब्रजभाषा में ‘नवीन’ भाव-संवेदना की अभिव्यक्ति का प्रयास कर उन्होंने ब्रजभाषा के आधुनिक साहित्य को समृद्ध किया है।
हिन्दी काव्यधारा की द्विवेदी युग के पश्चात् जो परिणति छायावाद से हुई है, ‘नवीन’ उसके अंतर्गत नहीं आते। राजनीति के कठोर यथार्थ में उनके लिए शायद यह सम्भव नहीं था कि वैसी भावुकता, तरलता, अतीन्द्रियता एवं कल्पना के पंख वे बाँधते, परन्तु इस बात को याद रखना होगा कि उनका काव्य भी स्वच्छन्दतावादी (मनोरंजक) आन्दोलन का ही प्रकाश है।
‘नवीन’ मैथिलीशरण गुप्त आदि का काव्य छायावाद के समानान्तर संचरण करता हुआ आगे चलकर बच्चन, अंचल, नरेन्द्र शर्मा, दिनकर आदि के काव्य में परिणत होता है। काव्यधारा के इस प्रवाह की ओर हिन्दी आलोचकों ने अभी तक उपेक्षा का ही भाव रखा है। अस्तु, ‘नवीन’ के काव्य में एक ओर राष्ट्रीय संग्राम की कठोर जीवनाभूतियाँ एवं जागरण के स्वर व्यंजित हुए हैं और दूसरे सहज मानवीय स्तर (योद्धा से अलग) पर प्रेम-विरह की राग-संवेदनाएँ प्रकाश पा सकी हैं। इसी क्रम में हालावादी काव्य की भी सृष्टि हुई है। इस प्रकार छायावाद के समानान्तर बहने वाली वीर-श्रृंगार धारा के वे अग्रणी कवि रहे हैं। कवि के अतिरिक्त गद्यलेखक के रूप में भी ‘प्रताप’ जैसे पत्र के माध्यम से उन्होंने ओज-गुणप्रधान एक शैली के निर्माण में अपना योग दिया है।
हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य धारा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ का सम्पादन उन्होंने किया था। इन पत्रों में लिखी गई उनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ अपनी निर्भीकता, खरेपन और कठोर शैली के लिए स्मरणीय हैं। ‘नवीन’ अत्यन्त प्रभावशाली और ओजस्वी वक्ता भी थे एवं उनकी लेखन शैली (गद्य-पद्य दोनों ही) पर उनकी अपनी भाषण कला का बहुत स्पष्ट प्रभाव है। राजनीतिक कार्यकर्ता के समान ही पत्रकार के रूप में भी उन्होंने सारे जीवन कार्य किया।
राजनीतिज्ञ एवं पत्रकार के समानान्तर ही उनके व्यक्तित्व का तीसरा भास्वर पक्ष कवि का था। उनके कवि का मूल स्वर मनोरंजक था, जिसे वैष्णव संस्कारों की आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीय जीवन का विद्रोही कण्ठ बराबर अनुकूलित करता रहा। उन्होंने जब लिखना प्रारम्भ किया तब द्विवेदी युग समाप्त हो रहा था एवं राष्ट्रीयता के नये आयाम की छाया में स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन काव्य में मुखर होने लगा था। परिणामस्वरूप दोनों ही युगों की प्रवृत्तियाँ हमें ‘नवीन’ में मिल जाती हैं।