हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के वीर रस के कवि एवं लेखक स्व. रामधारी सिंह ‘दिनकर’। ‘दिनकर’ जी स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। दिनकर जी की शैली में प्रसादगुण यथेष्ट हैं, प्रवाह है, ओज है, अनुभूति की तीव्रता है, सच्ची संवेदना है।
आरम्भ में दिनकर जी ने छायावादी रंग में कुछ कविताएँ लिखीं, पर जैसे-जैसे वे अपने स्वर से स्वयं परिचित होते गये, अपनी काव्यानुभूति पर ही अपनी कविता को आधारित करने का आत्म विश्वास उनमें बढ़ता गया, वैसे ही वैसे उनकी कविता छायावाद के प्रभाव से मुक्ति पाती गयी पर छायावाद से उन्हें जो कुछ विरासत में मिला था, जिसे वे मनोनुकूल पाकर पाकर अपना चुके थे, वह तो उनका हो ही गया। उनकी काव्यधारा जिन दो कुलों के बीच में प्रवाहित हुई, उनमें से एक छायावाद था। भूमि का ढलान दूसरे कुल की ओर था, पर धारा को आगे बढ़ाने में दोनों का अस्तित्व अपेक्षित और अनिवार्य था। दिनकर अपने को द्विवेदी युगीन और छायावादी काव्य पद्धतियों का वारिस मानते थे। उन्हीं के शब्दों में “पन्त के सपने हमारे हाथ में आकर उतने वायवीय नहीं रहे, जितने कि वे छायावाद काल में थे,” किन्तु द्विवेदी युगीन अभिव्यक्ति की शुभ्रता हम लोगों के पास आते-जाते कुछ रंगीन अवश्य हो गयी। अभिव्यक्ति की स्वच्छन्दता की नयी विरासत हमें आप से आप प्राप्त हो गयी।
उन्हें राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देनेवाली ओजस्वी कविताओं के कारण असीम लोकप्रियता मिली। दिनकर जी ने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेज़ी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। सरल भाषा और प्रांजल शैली में उन्होंने विभिन्न साहित्यिक विषयों पर निबंध के अलावा बोधकथा, डायरी, संस्मरण तथा दर्शन व इतिहासगत तथ्यों के विवेचन भी लिखे। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की।
एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। दिनकर अपने युग के प्रमुखतम कवि ही नहीं, एक सफल और प्रभावपूर्ण गद्य लेखक भी थे।
रामधारी सिंह जी की रचना :-
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
साहित्यिक रचनाएँ :
कविता संग्रह
रेणुका / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९३५)
हुंकार / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९३८)
रसवन्ती / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९३९)
द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९४०)
कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९४६)
धूपछाँह / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९४६)
सामधेनी / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९४७)
बापू / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९४७)
इतिहास के आँसू / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५१)
धूप और धुआँ / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५१)
रश्मिरथी / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५१)
नीम के पत्ते / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५४)
दिल्ली / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५४)
नील कुसुम / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५५)
नये सुभाषित / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५७)
सीपी और शंख / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५७)
परशुराम की प्रतीक्षा / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९६३)
हारे को हरि नाम / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९७०)
प्रणभंग / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९२९)
सूरज का ब्याह / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५५)
कविश्री / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९५७)
कोयला और कवित्व / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९६४)
मृत्तितिलक / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९६४)
खण्डकाव्य – उर्वशी / रामधारी सिंह “दिनकर” (१९६१)