उर्दू भाषा के प्रसिद्ध कवि स्व. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। उन्होंने उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। फै़ज़ अहमद फै़ज़ की उर्दू कविता दुआ का बलोची अनुवाद बलोच कवि गुल खान नासिर द्वारा किया गया। २० वीं सदी का वो महान् उर्दू शायर जिसने सरकारी तमगों और पुरस्कारों के लिए नहीं, जिसने शराब की चाशनी में डूबती-नाचती महबूबाओं के लिए नहीं, जिसने मज़ारों और बेवफ़ाईयों के लिए नहीं बल्कि अपने इंसान होने के एहसास, समाज और देश के लिए, एक सही और बराबरी की व्यवस्था वाले लोकतंत्र के लिए इंकलाब को अपने कलम की स्याही बनाया और ज़ुल्म-ओ-सितम में जी रहे लोगों को वो दिया जो बंदूकों और तोपखानों से बढ़कर था। फ़ैज़ की कविताओं में जितना जिंदा वो सच है जिसमें हम जी रहे हैं, उतना ही जिंदा वो हौसला है जिसकी बदौलत आदम-ओ-हव्वा की औलादें अपने वर्तमान को बदल सकती हैं।
शोषण, दमन और बंदरबांट को जिस ख़ूबसूरती से फ़ैज़ नंगा करके लोगों के सामने लाते हैं, वो बेमिसाल है। पर जब फ़ैज़ इश्क़ भी करते हैं तो लगता है कि न जाने कोई हाड़-मांस की महबूबा है या इंकलाब का परचम थामे हुए क्रांति खड़ी है जिसके लिए वो दीवाने हुए जाते हैं। और इसीलिए जब रूमानियत की या इंकलाब की कविताओं की बात अलग-अलग उठती है तो फ़ैज़ तराजू के दोनों ओर बराबर वज़नदार मालूम देते हैं। कोई भी इंकलाबी कवि या शायर रूमानी भी हो सकता है या होता है, ऐसे जुमलों का सबसे सटीक और मज़बूत उदाहरण फ़ैज़ हैं।