रुठी रुठीसी ज़िंदगी…

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– सविता टिळक / कविता /

एका अनपेक्षित संकटाने सर्व जगात हाहा:कार माजला. रोजच्या जगण्यामध्ये उलथापालथ झाली. सर्व जग भयावह वाटणाऱ्या शांततेने ग्रस्त झालं एरवी ताणामुळे हवीहवीशी वाटणारी शांतता नकोनकोशी वाटू लागली. स्वत:च्या मोठेपणाची प्रौढी मिरवणाऱ्या मानवाला, जीवनाने त्याच्या मर्यादांची बहुधा जाणीव करून दिली…

कहां सोचा था, ज़िंदगी कभी ऐसी भी होगी
ठंडी के बर्फ़ जैसी जम सी जायेगी।

ज़िंदगी क्यों अचानक चूप सी।
गाँवों, शहरों की गलियां भी थमीसी।

कैसे ज़िंदगी तू मुरझासी गई।
नुक्कड़, बगीयों में खामोशीं छाई।

रिश्तों को पीछें छोडकर बेजान।
बड़प्पन की दौड़ में भाग रहा इन्सान।

खरीदारी की लगी कहीं कतारें।
कही दों निवालों बिना तरसें सूखें चेहरें।

हुआ जो खुद के ओछे़पन का एहसास।
टूटा दिल, मन हो गया उदास।

आज लगे ज़िंदगी सबसे रुठी रुठीसी ।
गुमसुम, मायूसी में लिपटी हुईसी।

क्या ज़िंदगी सच में रुक सी गई।
इन्सानों की दुनिया से रुसवां हुई।

वह तो आज भी फूलों में खिलखिलातीं।
पंछीयों के मीठें बोलों में चहचहातीं।

सूरज रोशनी से आज भी जगमगायें।
तारें आसमानों पर रातों को झिलमिलायें।

प्रकृती कहे तू सिर्फ मेरी छोटीसी पहचान।
ए इन्सान, मुझ़से जुदा, जीना नहीं आसान।

ज़िंदगी नें जीने का अर्थ सीखा दिया।
सबसे मिल चलने का मोल दिखा दिया।

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