हिंदी साहित्य के प्रगतिशील कवि एवं निबंध लेखक भगवत रावत। भगवत रावत मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और ‘वसुधा’ पत्रिका के संपादक भी रहे। भगवत रावत समकालीन हिन्दी कविता के शीर्षस्थ कवि, साहित्यकार और मेहनतकश मज़दूरों के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे। आज जब प्रगतिशीलता और जनवाद के नाम पर अधिकांश कविताएं जहां सपाटबयानी, जुमलेबाज़ी और कोरी भावुकता की अभिव्यक्ति मात्र रह गई हैं, भगवत रावत की कविता अपने कथ्य और रूप विधान में पूर्णत: यथार्थवादी है। इनकी रचनाशीलता का क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक है। प्रकृति एवं समाज से कवि पूरी तरह एकात्म है।
भाव-बोध के अत्यंत ही उच्च स्तर पर सृजित होनेवाली उनकी कविताएं पाठकों-श्रोताओं को जटिल एवं संशलिष्ट यथार्थ के बहुविध पहलुओं से सामान्यीकृत कराती हैं। संवेदना के स्तर पर भगवत रावत की कविताएं पाठकों को झकझोरने के साथ ही उसके मन में ‘बजती’ हैं। स्वयं कवि का कहना है कि जो कविताएं पाठकों के मन में नहीं ‘बजे’ उन्हें कविता मानने में संदेह होता है।
रावत की कविताओं में जहां चुप्पी है, वह भी कुछ न कुछ कहती है… काव्य पंक्तियों के बीच की खाली जगहें, संकेत-चिह्न…सब कुछ अभिव्यक्ति को गंभीर अर्थ प्रदान करने वाले हैं। स्पष्ट है कि कवि अद्भुत शिल्प-विधान की रचना करता है जो काव्य अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्रयोग के नए प्रतिदर्श बन जाते हैं। पर इससे यह समझना ग़लत होगा कि रावत शिल्प पर ज़ोर देते हुए पूर्णत: प्रयोगधर्मी कवि हैं, सच तो यह है कि इनकी कविता विचारों की सान पर धारदार होती चली गई है। वैसे, कवि का मानना है कि लिखित होना आज कविता की नियति बन चुकी है, पर मूलत: यह उच्चरित ध्वनि है और अलग-अलग मन:स्थितियों में सुनने अथवा पढ़े जाने पर अलग छवियां दृश्यमान करती हैं।
रावत की कविताओं में रूप-रंग-रस-गंध-नाद का वह निनाद है जो पाठकों को संतृप्त कर देता है। शमशेर की तरह रावत ध्वनि संकेतों से चित्र-रचना करते हैं। इस मायने में वे एक उच्च कोटि के कलाकार हैं। यह एक खास बात है कि रावत कविता को मूलत: एक श्रव्य माध्यम मानते हैं, ऐसा इसलिए कि वह लोक परंपरा के कवि हैं, उस सामाजिक परिवेश के कवि हैं, जिनमें त्रिलोचन की चंपा ‘काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती।’ कम से कम शब्दों में यही कहा जा सकता है रावत हिंदी की लोक परंपरा के, जिसकी धारा भक्ति काल से चली आ रही है, प्रतिनिधि कवि हैं।
इनके प्रमुख कविता संग्रह हैं – समुद्र के बारे में (1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह (1988), सुनो हिरामन (1992), सच पूछो तो(1996), हमने उनके घर देखे (2001), ऐसी कैसी नींद (2004)। 1993 में इनकी ‘कविता का दूसरा पाठ’ शीर्षक से आलोचना की पुस्तक प्रकाशित हुई। इनकी रचनाएं मराठी, बांग्ला, उड़िया, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी एवं जर्मन भाषा में अनूदित हुईं।