समकालीन कथा-साहित्य के व्यंग्य लेखक स्व. श्रीलाल शुक्ल। उन्होंने शिवपालगंज के रूप में अपनी अद्भुत भाषा शैली, मिथकीय शिल्प और देशज मुहावरों से गढ़ा था। श्रीलाल शुक्ल जी के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है। त्रासदियों और विडंबनाओं के इसी साम्य ने ‘राग दरबारी’ को महान् कृति बनाया, तो इस कृति ने श्रीलाल शुक्ल जी को महान लेखक। राग दरबारी व्यंग्य है या उपन्यास, यह एक श्रेष्ठ रचना है, जिसकी तसदीक करोड़ों पाठकों ने की है और कर रहे हैं। ‘विश्रामपुर का संत’, ‘सूनी घाटी का सूरज’ और ‘यह मेरा घर नहीं’ जैसी कृतियाँ साहित्यिक कसौटियों में खरी साबित हुई हैं। बल्कि ‘विश्रामपुर का संत’ को स्वतंत्र भारत में सत्ता के खेल की सशक्त अभिव्यक्ति तक कहा गया था। राग दरबारी को इतने वर्षों बाद भी पढ़ते हुए उसके पात्र हमारे आसपास नजर आते हैं।
शुक्लजी ने जब इसे लिखा था, तब एक तरह की हताशा चारों तरफ़ नजर आ रही थी। यह मोहभंग का दौर था। ऐसे निराशा भरे महौल में उन्होंने समाज की विसंगतियों को चुटीली शैली में सामने लाया था। वह श्रेष्ठ रचनाकार के साथ ही एक संवेदनशील और विनम्र इंसान भी थे। श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं।
श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि – “कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर – आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्ठता देती है। जैसे मनुष्य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।”