राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि स्व. मैथिलीशरण गुप्त। उनके जन्मदिवस के अवसर पर हर साल ३ अगस्त ‘कवि दिवस’ रूप से मनाया जाता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (१९१२) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी भी दी थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है।

मैथिलीशरण गुप्त जी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। वह युग जातीय जागरण और राष्ट्रीय उन्मेष का काल था। वे अपने युग और उसकी समस्याओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे। उनका संवेदनशील और जागरूक कवि हृदय देश की वर्तमान दशा से क्षुब्ध था। वे धार्मिक और सामाजिक कृतियों को इस दुर्दशा का मूल कारण मानते थे। अत: उनके राष्ट्रवाद की प्रथम जागृति धार्मिक और सामाजिक सुधारवाद के रूप में दिखाई देती है। नारियों की दुरवस्था तथा दु:खियों दीनों और असहायों की पीड़ा ने उनके हृदय में करुणा के भाव भर दिये थे। यही वजह है कि उनके अनेक काव्य ग्रंथों में नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति झलकती है। मैथिलीशरण गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। 

पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो ‘पंचवटी’ से लेकर ‘जयद्रथ वध’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। ‘साकेत’ उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। प्रथम काव्य संग्रह ‘रंग में भंग’ तथा बाद में “जयद्रथ वध” प्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ “मेघनादवध”, “विरहिणी ब्रजांगना” तथा “वीरांगना” का अनुवाद भी किया। सन् १९१२ ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत “भारत भारती” का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ “स्वप्नवासवदत्ता” का अनुवाद प्रकाशित कराया।
सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य ‘साकेत’ की रचना आरम्भ की। उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव इस ग्रन्थ में दूर किये। स्वतः प्रेस की स्थापना कर अपनी पुस्तकें छापना शुरु किया। “साकेत” तथा “पंचवटी” आदि अन्य ग्रन्थ सन् १९३१ में पूर्ण किये। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रकवि के आसंदी पर आरूढ़ मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने साठ वर्षीय काव्य साधना, कला में लगभग सत्तर कृतियों की रचना करके न केवल हिन्दी साहित्य की अपितु सम्पूर्ण भारतीय समाज की अमूल्य सेवा की है। उन्होंने अपने काव्य में एक ओर भारतीय राष्ट्रवाद, संस्कृति, समाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठित किया, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के अंत:सम्बंधों के आधार पर इन्हें नवीन अर्थ भी प्रदान किया है।

मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। मैथिलीशरण जी की प्रसिद्धि का मूलाधार भारत–भारती है। भारत–भारती उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। साकेत और जयभारत, दोनों महाकाव्य हैं। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। यशोधरा में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केन्द्र में है। यशोधरा की मनःस्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है। विष्णुप्रिया में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केन्द्र में है। वस्तुतः गुप्त जी ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित ‘काव्येर उपेक्षित नार्या’ शीर्षक लेख से प्रेरणा प्राप्त कर अपने प्रबन्ध काव्यों में उपेक्षित, किन्तु महिमामयी नारियों की व्यथा–कथा को चित्रित किया और साथ ही उसमें आधुनिक चेतना के आयाम भी जोड़े।

विविध धर्मों, सम्प्रदायों, मत–मतांतरों और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता व समन्वय की भावना गुप्त जी के काव्य का वैशिष्ट्य है। पंचवटी काव्य में सहज वन्य–जीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र हैं, तो नहुष पौराणिक कथा के आधार के माध्यम से कर्म और आशा का संदेश है। झंकार वैष्णव भावना से ओतप्रोत गीतिकाव्य है, तो गुरुकुल और काबा–कर्बला में कवि के उदार धर्म–दर्शन का प्रमाण मिलता है। खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास में गुप्त जी का अन्यतम योगदान रहा।

अपने साहित्यिक गुरु महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्त जी ने ‘भारत-भारती’ की रचना की। ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन से ही गुप्त जी प्रकाश में आये। उसी समय से आपको ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से अभिनंदित किया गया। उनकी साहित्य साधना सन् 1921 से सन् 1964 तक निरंतर आगे बढ़ती रही। गुप्त जी युग-प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि थे। इस अर्ध-शताब्दी की समस्त सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक हलचलों का प्रतिनिधित्व इनकी रचनाओं में मिल जाता है। इनके काव्य में राष्ट्र की वाणी मुखर हो उठी है। देश के समक्ष सबसे प्रमुख समस्या दासता से मुक्ति थी। गुप्त जी ने ‘भारत-भारती’ तथा अपनी अन्य रचनाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रेरणा प्रदान की। इन्होंने अतीत गौरव का भाव जगाकर वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा दी। अपनी अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं-

“मानव-भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती।
भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती।”

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