हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक एवं कवि स्व. भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव। भुवनेश्वर जी का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर केरुगंज में, २० जून, १९१० में हुआ था। भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव साहित्य जगत् का एक ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में उस दौर से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया। भुवनेश्वर जी ने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतिरूप में उकेरा। उस समय के भुवनेश्वर जी का बौद्धिक ज्ञान, हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार, इंसानी रिश्तों को समझने का अदभुत नजरिया समकालीन लेखकों के लिए अचरज से कम नहीं था। परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्वयं भुवनेश्वर जी का जीवन अभावों एवं कठिनताओं का पुलिंदा था।
आदर्श और यथार्थवाद के उस दौर में इनकी रचनाओं ने दोनों के सीमान्तों को इस प्रकार उद्घाटित किया कि उनके बारे में तरह-तरह की किवदंतियां फैलने लगी। इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ में भटकते भुवनेश्वर जी के लिए मित्र मंडली के घर आसरा, और कठिनाइयों का चोली दामन का साथ रहा। परन्तु इन परेशानियों में भी उनकी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रही। एक बार स्वयं प्रेमचंद ने उनसे अपने लेखन में ‘कटुता’ कम करने की राय दी थी, जिस पर उन्होंने कहा कि इस ‘कटुता’ की उपज के पीछे के कारणों की भी पड़ताल होनी चाहिये। शायद यही कारण, वो तमाम विसंगतियां थी, जिनका सामना उन्हें अपने जीवन में करना पड़ा। भुवनेश्वर की नियति पर रघुवीर सहाय की टिप्पणी सर्वाधिक सटीक है, “उनके साथ समाज ने जो किया, वह सच बोलने और सच्चे होने की ऐसे समाज द्वारा दी गई सजा थी, जो अपने को गुलामी से निकालकर आज़ाद होने के विरुद्ध था।”
भुवनेश्वर जी की साहित्य साधना बहुआयामी थी। कहानी, कविता, एकांकी और समीक्षा सब में उनकी लेखनी एक नए कलेवर का एहसास दिलाती है। छोटी सी घटना को भी नई, परन्तु वास्तविकता के सर्वाधिक सन्निकट दृष्टि से देखने का नजरिया भुवनेश्वर जी की विशेषता है। लेकिन भुवनेश्वर जी मात्र एक कहानीकार–एकांकीकार ही नहीं, एक उत्कृष्ट कवि, सूक्तिकार और मारक टिप्पणीकार भी हैं । अपने सम्पूर्ण लेखन में वे कहीं भी दबी ज़बान से नहीं बोलते। उनकी अंग्रेज़ी की १० कविताओं में सत्यकथन की अघोर हिंसा का जो हाहाकार है वह हिन्दी कविता के तत्कालीन (छायावादी) वातावरण के बिल्कुल विपरीत और अत्याधुनिक है। इसके अतिरिक्त भुवनेश्वर जी ने अंग्रेज़ी तथा हिन्दी में कुछ कविताएं तथा आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। परन्तु उनके कृतित्व को पहचानने में लोगों ने भूल कर दी। शायद यही कारण था, कि इस अनोखे रचनाकार को पूरा जीवन संघर्षो और विवादों में गुजारना पड़ा। भुवनेश्वर जी द्वारा लिखित नाटक ‘तांबे का कीड़ा’ (१९४६) को विश्व की किसी भी भाषा में भी लिखे गये पहले असंगत नाटक का सम्मान प्राप्त है।
उनके द्वारा लिखित एकांकियों में ‘श्यामःएक वैवाहिक विडम्वना’, ‘रोमांसः रोमांच’, ‘स्ट्राइक’, ‘ऊसर’, ‘सिकन्दर’ आदि का नाम उल्लेखनीय है। भुवनेश्वर जी की पहली कहानी ‘मौसी’ को प्रेमचंद ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन ‘हिंदी की आदर्श कहानियां’ में स्थान दिया। भारतीय रंग मंच के प्रसिद्ध दिग्दर्शक भानु भारती जी ने एक समय कहा भी था कि जब उन्होंने भुवनेश्वर जी के नाटक ‘तांबे के कीड़े’ पर काम करना शुरू किया, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि आख़िर १९४६ में जब विश्व रंगमंच पर ऑयनोस्की और बैकेट का आगमन नहीं हुआ था, तो भुवनेश्वर जी द्वारा ऐसे नाटकों की परिकल्पना करना कितना आश्चर्यजनक है। छोटे कद, उलझे और बिखरे हुए बाल, मैला-सा पुराना कुर्ता-पायजामा, पैरों में साधारण-सी चप्पल और उंगलियों में सुलगी हुई बीड़ी फंसाए इसी मामूली आदमी ने अपनी प्रतिभा के बल पर हिंदी नाटकों के एक युग का सूत्रपात किया था। ऐसे महान साहित्यकार को साहित्यकल्प की ओर से शत शत नमन।