हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा। वृंदावनलाल वर्मा की विचारधारा उनके उपन्यासों से स्पष्ट ज्ञात हो जाती है। इनकी दृष्टि सर्वदा राष्ट्र के पुन: निर्माण की ओर रही। भारत के पतन के मूल कारण रूढ़ि-जर्जर समाज को इन्होंने अपनी सभी प्रकार की रचनाओं में प्रयोगशाला बनाया है तथा सामाजिक कुरीतियों की ओर इंगित किया है। ये श्रम के महत्त्व के प्रबल पोषक हैं। वर्माजी मानव जीवन के लिए प्रेम को एक आवश्यक तत्त्व मानते थे। यही नहीं, उनके विचार से प्रेम एक साधना है, जो साधक को सामान्य भूमि से उठाकर उच्चता की ओर ले जाती है। जीवन के प्रति इनका दृष्टिकोण प्राय: वही है, जिसका प्रतिपादन प्राचीन भारतीय संस्कृति करती है।
इनके विचार से मनुष्य को केवल कर्म करने का अधिकार है, फल का नहीं। वृंदावनलाल वर्मा जी की भाषा अधिकतर पात्रानुकूल होती है। इनकी भाषा में बुन्देलखण्डी का पुट रहता है। जो उपन्यासों की क्षेत्रीयता का परिचायक है। वर्णन जहाँ भावप्रधान होता है, वहाँ भी इनकी शैली अधिक अलंकारमय न होकर मुख्यतया उपयुक्त उपमा-विधान से संयुक्त दिखाई देती है। मुख्यता वृंदावनलाल वर्मा जी की शैली वर्णनात्मक है, जिसमें रोचकता तथा धाराप्रवाहिता, दोनों गुण वर्तमान हैं। ये पात्रों के चरित्र विश्लेषण में तटस्थ रहते हैं। पात्र अपने चरित्र का परिचय घटनाओं, परिस्थितियों एवं कथोपकथन से स्वयं दे देते हैं। इनके उपन्यासों की लोकप्रियता का यह एक प्रमुख कारण है।
ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में वृंदावनलाल वर्मा का कृतित्त्व विशेष महत्त्व रखता है। इनमें पूर्व हिन्दी साहित्य में ऐसा कोई उपन्यासकार नहीं हुआ, जिसने इतनी व्यापक भावभूमि पर इतिहास को प्रतिष्ठित करके उसके पीछे निहित कथा-तत्त्व को शक्तिसंलग्नता और अंतदृष्टि के साथ सूत्रबद्ध किया हो। वर्माजी के अनेक उपन्यासों में वास्तविक इतिहास रस की उपलब्धि होती है। इस पुष्टि से वे हिन्दी के अन्यतम उपन्यासकार थे।