हिन्दी साहित्य के उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. शिवप्रसाद सिंह। स्वर्ण पदक विजेता डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने एम.ए. में ‘कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा’ पर जो लघु शोध प्रबंध प्रस्तुत किया उसकी प्रशंसा राहुल सांकृत्यायन और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की थी। हालांकि वे द्विवेदी जी के प्रारंभ से ही प्रिय शिष्यों में थे, किन्तु उसके पश्चात् द्विवेदी जी का विशेष प्यार उन्हें मिलने लगा। द्विवेदी जी के निर्देशन में उन्होंने ‘सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य’ विषय पर शोध संपन्न किया, जो अपने प्रकार का उत्कृष्ट और मौलिक कार्य था।
डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किए वह प्रेमचंद और रेणु से पृथक् थे। एक प्रकार से दोनों के मध्य का मार्ग था; और यही कारण था कि उनकी कहानियां पाठकों को अधिक आकर्षित कर सकी थीं। इसे विडंबना कहा जा सकता है कि जिसकी रचनाओं को साहित्य की नई धारा के प्रवर्तन का श्रेय मिला हो, उसने किसी भी आंदोलन से अपने को नहीं जोड़ा। वे स्वतंत्र एवं अपने ढंग के लेखन में व्यस्त रहे और शायद इसीलिए वे कालजयी कहानियां और उपन्यास लिख सके।
शिवप्रसाद सिंह का विकास हालांकि पारिवारिक वातावरण से अलग सुसंस्कारों की छाया में हुआ, लेकिन उनके व्यक्तित्व में सदैव एक ठकुरैती अक्खड़पन विद्यमान रहा। किन्तु यह अक्खड़पन प्रायः सुषुप्त ही रहता, जाग्रत तभी होता जहां लेखक का स्वाभिमान आहत होता। उनकी प्रमुख रचनाएँ ‘दादी मां’, ‘कर्मनाशा की हार’, ‘धतूरे का फूल’, ‘नन्हों’, ‘एक यात्रा सतह के नीचे’, ‘राग गूजरी’, ‘मुरदा सराय’ आदि कहानियों तथा ‘अलग-अलग वैतरिणी’ और ‘गली आगे मुड़ती है’ थीं। डॉ. शिवप्रसाद सिंह उन बिरले लेखकों में थे, जो किसी विषय विशेष पर कलम उठाने से पूर्व विषय से संबंधित तमाम तैयारी पूरी करके ही लिखना प्रारंभ करते थे। ‘नीला चांद’, ‘कोहरे में युद्ध’, ‘दिल्ली दूर है’ या ‘शैलूष’ इसके जीवंत उदाहरण हैं। ‘वैश्वानर’ पर कार्य करने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य खंगाल डाला था और कार्य के दौरान भी जब किसी नवीन कृति की सूचना मिली, उन्होंने कार्य को वहीं स्थगित कर जब तक उस कृति को उपलब्ध कर उससे गुजरे नहीं, ‘वैश्वानर’ लिखना स्थगित रखा। किसी भी जिज्ञासु की भांति वे विद्वानों से उस काल पर चर्चा कर उनके मत को जानते थे। १९९३ के दिसंबर में वे इसी उद्देश्य से डॉ. रामविलास शर्मा के यहां पहुंचे थे और लगभग डेढ़ घण्टे विविध वैदिक विषयों पर चर्चा करते रहे थे। यद्यपि वे अपने साहित्यिक गुरु डॉ. हज़ारीप्रसाद द्विवेदी से प्रभावित थे, लेकिन डॉ. नामवर सिंह के इस विचार से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि ‘डॉ. शिवप्रसाद सिंह को ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की प्रेरणा द्विवेदी जी के ‘चारुचंन्द्र लेख’ से मिली थी। ‘द्विवेदी जी का ‘चारुचंद्र लेख’ भी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के राजा गहाड़वाल से संबंधित है।