हिंदी भाषा में मुक्तछंद के प्रवर्तक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार स्व. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। प्रौढ़ कृतियों की सर्जना के साथ ही ‘निराला’ व्यंग्यविनोद पूर्ण कविताएँ भी लिखते थे जिनमें से कुछ ‘अनामिका’ में संग्रहीत हैं। पर इसके बाद बाह्य परिस्थितियों के कारण, जिनमें उनके प्रति परम्परावादियों का उग्र विरोध भी सम्मिलित है, उनमें विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। ‘निराला’ और पन्त मूलत: अनुभूतिवादी कवि हैं। ऐसे व्यक्तियों को व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थितियाँ बहुत प्रभावित करती हैं। इसके फलस्वरूप उनकी कविताओं में व्यंग्योक्तियों के साथ-साथ निषेधात्मक जीवन की गहरी अभिव्यक्ति होने लगी। निराला जी की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का ज़ज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रान्तिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहाँ अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के स्रष्टा हुए, वहाँ दूसरी ओर परम्पराभ्यासी हिन्दी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक ग़लत भी समझे गये। उनके विविध प्रयोगों- छन्द, भाषा, शैली, भावसम्बन्धी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
विद्रोह निराला के स्वभाव का अभिन्न अंग है। वे सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक सभी क्षेत्रों में जर्जर रुढ़ि-परंपरा एवं जड़ता के कट्टर शत्रु थे। आधुनिक हिंदी कविता के आदि गुरु निराला में कवि और आलोचक दोनों का आदर्श समन्वय है। परंपरा और नवजागरण की समन्वयात्मक दृष्टि के कारण निराला जी की विवेचना में काव्य के मान्य सिद्धांतों के साथ नवीनता भी प्राप्त होती है। काव्य निर्मिति के लिए आप प्रतिभा को आवश्यक मानते हैं। प्रतिभा के साथ आप अध्ययन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं, “प्रकृति का पर्यवेक्षण करनेवाला ही कवि नहीं हो जाता, उसे और भी बहुत सी बातें नाप-तौल करनी पड़ती है। किस शब्द का प्रयोग उचित होगा, किस शब्द से कविता में भाव की व्यंजना अधिक होगी, इसका भी ध्यान कवियों को रखना पड़ता हैं।”
“कवि के रुप में छिपा यह संत हमेशा वीतराग रहा। उन्होंने व्यक्तिगत न धन चाहा न सम्मान। आस्तिकता भरा स्वाभिमान एवं आत्मविश्वास, अपरिग्रह और अतिशय उदारता, करुणा एवं क्रांति भावना, संकोच एवं स्पष्टवादिकता आदि विविध गुणोंसे मंडित इस महाप्राण कवि का सुयोग्य सत्कार नहीं हो सका। जब वह संसारर से आँखे फेर चुका था, तब समाज जागृत हुआ। पीड़ा, वेदना, क्लेश को ग्रहण कर स्नेह, शांति, आशा का दान करनेवाला आत्महंता कवि बीसवीं शताब्दी की हिंदी साहित्य को बड़ी देन है।” – डॉ. सुधाकर गोकाककर । डॉ. गो. रा. कुलकर्णी