राजस्थान के प्रसिद्ध लेखक स्व. विजयदान देथा ‘बिज्जी’। विजयदान देथा की राजस्थानी भाषा में चौदह खडों में प्रकाशित बाताँ री फुलवारी के दसवें खण्ड को भारतीय राष्ट्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया, जो राजस्थानी कृति पर पहला पुरस्कार है। राजस्थानी भाषा में क़रीब ८०० से अधिक लघुकथाएं लिखने वाले विजयदान देथा की कृतियों का हिंदी, अंग्रेज़ी समेत विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया। विजयदान देथा ने कविताएँ भी लिखीं और उपन्यास भी। वे कलात्मक दृष्टि से उतने सफल नहीं नहीं हो सके। संभवतः उनकी रचनात्मक क्षमता खिल पाई लोक कथाओं के साथ उनके अपने काम में।
विजयदान देथा ने रंगमंच और सिनेमा को अपनी ओर खींचा। एक अच्छी ख़ासी आबादी है जो उन्हें ‘चरणदास चोर’ के माध्यम से ही जानती है। राजस्थान की रंग रंगीली लोक संस्कृति को आधुनिक कलेवर में पेश करनेवाले, लोककथाओं के अनूठे चितेरे विजयदान देथा यानी बिज्जी अपने पैतृक गांव में ही रहते थे, राजस्थानी में ही लिखते थे और हिन्दीजगत फिर भी उन्हें हाथोंहाथ लेता था। चार साल की उम्र में पिता को खो देने वाले श्री देथा ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा। ताउम्र राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया। बने बनाए सांचों को तोड़ने वाले विजयदान देथा ने कहानी सुनाने की राजस्थान की समृद्ध परंपरा से अपनी शैली का तालमेल किया।
चतुर गड़ेरियों, मूर्ख राजाओं, चालाक भूतों और समझदार राजकुमारियों की जुबानी विजयदान देथा ने जो कहानियां बुनीं उन्होंने उनके शब्दों को जीवंत कर दिया। राजस्थान की लोककथाओं को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। दरअसल वे एक जादुई कथाकार थे। अपने ढंग के अकेले ऐसे कथाकार, जिन्होंने लोक साहित्य और आधुनिक साहित्य के बीच एक बहुत ही मज़बूत पुल बनाया था। उन्होंने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी।
सही मायनों में वे राजस्थानी भाषा के भारतेंदु हरिश्चंद्र थे, जिन्होंने उस अन्यतम भाषा में आधुनिक गद्य और समकालीन चेतना की नींव डाली। अपने लेखन के बारे में उनका कहना था- “हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे कोई सार नज़र नहीं आता। आकाशगंगा से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को गढ़ने वाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी।”
विजयदान देथा की कहानियाँ पढ़कर विख्यात फिल्मकार मणि कौल इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने तत्काल उन्हें लिखा- तुम तो छुपे हुए ही ठीक हो। …तुम्हारी कहानियाँ शहरी जानवरों तक पहुँच गयीं तो वे कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ेंगे। …गिद्ध हैं नोच खाएँगे। तुम्हारी नम्रता है कि तुमने अपने रत्नों को गाँव की झीनी धूल से ढँक रखा है। हुआ भी यही, अपनी ही एक कहानी के दलित पात्र की तरह- जिसने जब देखा कि उसके द्वारा उपजाये खीरे में बीज की जगह ‘कंकड़-पत्थर’ भरे हैं तो उसने उन्हें घर के एक कोने में फेंक दिया, किन्तु बाद में एक व्यापारी की निगाह उन पर पड़ी तो उसकी आँखें चौंधियाँ गयीं, क्योंकि वे कंकड़-पत्थर नहीं हीरे थे। विजयदान देथा के साथ भी यही हुआ। उनकी कहानियाँ अनूदित होकर जब हिन्दी में आयीं तो हिन्दी संसार की आँखें चौंधियाँ गयीं।