उर्दू और हिंदी भाषा के जगप्रसिद्ध साहित्यकार महरुम सआदत हसन मंटो। संवेदना और अभिव्यक्ति की ऐसी सच्चाई, लापरवाही विरले लेखकों में होती है। भाषा और शिल्प को तराशने और सजाने में उनकी दिलचस्पी नहीं होती। मंटो जी ने खुद के बारे में ‘सआदत हसन’ में लिखा है, “वह शब्दों के पीछे ऐसे भागता है जैसे कोई जाली शिकारी तितलियों के पीछे। वे उसके हाथ नहीं आती। यहीं कारण है की उसके लिखने में सुन्दर शब्दों की कमी है। वह लठ्मार है, जितने लठ उसकी गर्दन पर पड़े है, उसने बड़ी खुशी से सहन किए है।”
सआदत हसन मंटो जी की कहानियाँ बाहरी आधार और आसरे पर लिखी नहीं। वे अनुभव और परिस्थिती को एक दुसरे में ढालते हुए, दोनों को टकराव में नियोजित करते हुए लिखते थे। उनकी कहानियाँ आत्मसंघर्ष और आत्म आलोचना के दौरे से गुजरती हुई अनुभव कराती है। सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।
सआदत हसन मंटो जी की लेखन शैली – चीज़ों की परतों को चीरते हुए, परदों को हटते हुए, सीधे सीधे सच्चाई तक पहुँचने की। कहानियों के अंत में वे कोई नसीहत या निष्कर्ष कभी नहीं देते। कहानी में उभर रहे संघर्ष या द्वंद्व का सरलीकरण करने में उनकी दिलचस्पी नहीं दिखाई देती। उनकी कहानियों में मानो लगता है कि सभ्यता और इंसान की बिल्कुल पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच जो द्वंद है, उसे उघाड़कर रख दिया गया है। सभ्यता का नकाब ओढ़े इंसानी समाज को चुनौती देती उनकी कहानियां बहुत वाजिब थी कि उसके लेखक को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगवाए। यह उस वक्त की परेशानी थी जहाँ मंटो को समझा नहीं जा रहा था या फिर समझने की कोशिश नहीं की जा रही थी। लेकिन यह भी सच है कि उन्हें कभी नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सका। इसकी वजह है उनकी कहानी के वो विषय जो उस दौर में मौजूद तो थे लेकिन अब आकर कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगने लगे हैं। औरत-मर्द के रिश्ते, दंगे और भारत-पाकिस्तान का बंटवारा जैसे मसले एक अलग ही अंदाज़ में उनकी कहानियों में मौजूद होते थे।