हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि स्व. त्रिलोचन शास्त्री। उन्हें हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्य धारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिन्दी कविता की प्रगतिशील ‘त्रयी’ के तीन स्तंभों में से एक थे। इस ‘त्रयी’ के अन्य दो स्तम्भ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे। त्रिलोचन शास्त्री काशी (आधुनिक वाराणसी) की साहित्यिक परम्परा के मुरीद कवि थे। उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से ‘बनारस विश्वविद्यालय’ तक अपने सफर में त्रिलोचन शास्त्री ने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। शास्त्री जी बाज़ारवाद के प्रबल विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिन्दी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका मानना था कि- “भाषा में जितने प्रयोग होंगे, वह उतनी ही समृद्ध होगी।” त्रिलोचन शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे।
त्रिलोचन शास्त्री जी हिन्दी के अतिरिक्त अरबी और फ़ारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने जाते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे ख़ासे सक्रिय रहे। उन्होंने ‘प्रभाकर’, ‘वानर’, ‘हंस’, ‘आज’ और ‘समाज’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। शास्त्री जी को ‘हिन्दी सॉनेट’ का साधक माना जाता है। उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग ५५० सॉनेट की रचना की। इसके अतिरिक्त कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। वैसे तो उन्होंने गीत, ग़ज़ल, सॉनेट, कुंडलियां, बरवै, मुक्त छंद जैसे कविता के तमाम माध्यमों में लिखा, लेकिन सॉनेट (चतुष्पदी) के कारण वह ज्यादा जाने गए। वह आधुनिक हिंदी कविता में सॉनेट के जन्मदाता थे। हिंदी में सॉनेट को विजातीय माना जाता था। लेकिन त्रिलोचन ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया। इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवत: स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया।
उनका पहला कविता संग्रह ‘धरती’ १९४५ में प्रकाशित हुआ था। ‘गुलाब और बुलबुल’, ‘उस जनपद का कवि हूं’ और ‘ताप के ताये हुए दिन’ उनके चर्चित कविता संग्रह थे। ‘दिगंत’ और ‘धरती’ जैसी रचनाओं को कलमबद्ध करने वाले त्रिलोचन शास्त्री के १७ कविता संग्रह प्रकाशित हुए। त्रिलोचन जी ने भाषा शैली और विषयवस्तु सभी में अपनी अलग छाप छोड़ी। त्रिलोचन जी ने वही लिखा जो कमज़ोर के पक्ष में था। वो मेहनतकश और दबे कुचले समाज की एक दूर से आती आवाज़ थे। उनकी कविता भारत के ग्राम और देहात समाज के उस निम्न वर्ग को संबोधित थी जो कहीं दबा था कही जग रहा था कहीं संकोच में पड़ा था। उस जनपद का कवि हूं जो भूखा दूखा है नंगा है अनजान है कला नहीं जानता कैसी होती है वह क्या है वह नहीं मानता। त्रिलोचन जी ने लोक भाषा अवधी और प्राचीन संस्कृत से प्रेरणा ली, इसलिए उनकी विशिष्टता हिंदी कविता की परंपरागत धारा से जुड़ी हुई है। मजेदार बात यह है कि अपनी परंपरा से इतने नजदीक से जुड़े रहने के कारण ही उनमें आधुनिकता की सुंदरता और सुवास थी।