हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि, लेखक स्व. गोपालदास नीरज। वे सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवि थे, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा द्वारा हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया और बच्चन जी के बाद नयी पीढी को सर्वाधिक प्रभावित किया। ‘भदन्त आनन्द कौसल्यानन के शब्दों में “उनमें हिन्दी का अश्वघोष बनने की क्षमता है।” दिनकर के अनुसार “वे हिन्दी की वीणा हैं।” अन्य भाषा-भाषियों के विचार में वे ‘सन्त-कवि थे’ और कुछ आलोचक उन्हें ‘निराश-मृत्युवादी’ मानते हैं। आज अनेक गीतकारों के कण्ठ में उन्हीं की अनुगूँज है। ‘नीरज’ जी का काव्यकलागत दृष्टिकोण भाषा, शब्दों के प्रयोग, छ्न्द, लय, सन्दर्भ, वातावरण और प्रतीत-योजना आदि सभी दृष्टि से इस पीढ़ी के कवियों में सर्वथा अलग और विशिष्ट स्थान रखता है।
‘नीरज’ जी ने अपनी रचनाओं में सभी प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है। वह अपनी अनुभूतियों के आधार पर ही शब्दों, मुहावरों और क्रियाओं का प्रयोग करता है। यही कारण हैं कि उसके काव्य में हमें जहाँ संस्कृतनिष्ठ शैली दृष्टिगत होती है, वहाँ उर्दू जैसी सरल और सादी शब्दावली का व्यवहार ही देखने को मिलता है। उनकी रचनाओं को हम शैली की दृष्टि से दार्शनिक, लोकगीतात्मक, चित्रात्मक, परुष और संस्कृतनिष्ठ आदि विभिन्न रूपों में विभक्त कर सकते हैं। दार्शनिक शैली में वह प्रतीक प्रधान व्यंजना के द्वारा सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कहते चलते है। उनकी रचनाएँ संगीत, अलंकार और विशेषणों आदि विहीन सीधी-सादी होती हैं। लोकगीतात्मक शैली में प्राय: फक्कड़पन रहता है, और ऐसी रचनाओं में वह प्राय: ह्रस्व-ध्वनि प्रधान शब्द ही प्रयुक्त करते हैं।
उनकी लोकगीत-प्रधान शैली से लिखी गई रचनाओं में माधुर्य भाव की प्रचुरता देखने को मिलती है। चित्रात्मक शैली में लिखी गई रचनाओं में वह शब्दों द्वारा चित्र-निर्माण करने की ही रचनाएँ हैं, जो ओज, तारुण्य और बलिदान का संदेश देने के लिए लिखी गई हैं। ओज लाने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग नितांत वांछनीय है। ऐसी रचनाओं में ‘नीरज’ ने जीवन के निटकतम प्रतीकों का प्रयोग ही बहुलता से किया है। संस्कृतनिष्ठ शैली वाली रचनाओं में ‘नीरज’ की अनुभूति का आधार प्राचीन भारतीय परंपरा रही है।