हिन्दी साहित्य के नयी कविता दौर के प्रसिद्ध कवि स्व. विजयदेव नारायण साही। मालिक मुहम्मद जायसी पर केन्द्रित उनका व्यवस्थित अध्ययन एवं नयी कविता के अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक तथा समसामयिक मुद्दों पर केन्द्रित उनके आलेख उनकी प्रखर आलोचकीय क्षमता के परिचायक हैं। साही जी की प्रतिभा बहुआयामी तथा अध्ययन-क्षेत्र व्यापक था। अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक होने के साथ-साथ वे हिंदी साहित्य के कवि एवं आलोचक तो थे ही साथ ही उर्दू-फारसी के ज्ञाता भी थे।
वे नई कविता आंदोलन से संबंधित थे। इस आंदोलन को प्रचलित रूप में प्रगतिवादी आंदोलन का प्रतिद्वंद्वी माना जाता रहा है। परंतु साही जी ने अपना पूरा जीवन शोषित मजदूरों एवं महिलाओं के उत्थान के लिए लगाया। कालीन-बुनकरों को संगठित कर उनकी यूनियन बनायी, उनकी लड़ाई लड़ते रहे। महिला कताईकारों के लिए भी संघर्ष किया और उन्हें उचित वेतन दिलवाया। साही कानून की पुस्तकें पढ़ कर मजदूरों के मुकदमे को हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते थे और जीतते भी थे। इस कार्य में उन्होंने कार्यकर्ताओं को भी प्रशिक्षित किया। साही जी का जीवन सामाजिक कार्यों में लगातार भाग लेने के कारण काफी व्यस्त रहा और इसलिए भी उन्होंने बहुत अधिक नहीं लिखा; परंतु जो कुछ लिखा वह पूरी तन्मयता से लिखा और इसलिए उनका लिखा कुछ भी नजरअंदाज करने योग्य नहीं है।
वे एक कवि थे और कविता उनकी प्राथमिक विधा थी, परंतु आलोचना के क्षेत्र में भी उनका कम लेखन के बावजूद ऐसा जबर्दस्त योगदान हुआ कि उन्हें हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ दस आलोचकों में प्रायः निर्विवाद रूप से स्थान दिया जाता है। सर्वप्रथम १९५९ में प्रकाशित तीसरा सप्तक में अज्ञेय ने एक कवि के रूप में शाही को भी सम्मिलित किया और उनकी २० कविताएँ इसमें प्रकाशित हुईं। पुनः उनकी कविताएँ दो स्वतंत्र संग्रह के रूप में भी प्रकाशित हुईं। मछलीघर उनके जीवन-काल में प्रकाशित एकमात्र पुस्तक थी। साही द्वारा अपनी कविताओं में चित्रित मानव स्वयं उनके द्वारा परिभाषित ‘लघु मानव’ का ही बिंब उपस्थापित करता है।
मानवीय उत्थान-पतन तथा उसमें निहित संघर्षशीलता का चित्रण भी साही ने शिद्दत से किया है, परंतु उनका मानव न तो कोई योद्धा है और न ही अपनी दुःस्थितियों को सरलतापूर्वक पहचान कर संघर्ष उत्पन्न करने वाले के खिलाफ लामबंद होते हुए समूह का कोई सदस्य। वह तो अपनी पीड़ा में छटपटाता और मुक्ति की राह तलाशता सहज मानवीय राग से संपन्न ‘लघु मानव’ है, जो व्यापक विडंबनाओं एवं व्यवस्था की विषमताओं से त्रस्त तथा अपनी आंतरिक कमजोरियों को लिए-दिए जूझने वाले प्राणी के रुप में सामने आता है। मानवीय प्रणय और सामाजिक इतिहास की शक्तियों तथा उनकी अंतर्क्रिया को सूफी संतों जैसी सांकेतिक रहस्य शैली में व्यक्त करना भी साही की विशेषता है।
साही जी का आलोचनात्मक लेखन अधिकतर स्फुट रूप में ही रहा है। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध लम्बा निबन्ध ‘ लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस (छायावाद से अज्ञेय तक)’ इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नयी कविता’ के संयुक्तांक ५-६ में छपा था। ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ उनका दूसरा प्रसिद्ध निबन्ध है। साहित्य के विभिन्न विषयों एवं मुद्दों से संबंधित उनके निबन्ध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे और उनके निधनोपरांत पहली बार १९८७ ई॰ में छठवाँ दशक नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। साही के आलोचनात्मक लेखन का मुख्यांश इसी पुस्तक में संकलित है।