हिन्दी भाषा के साहित्यकार, पत्रकार, संपादक, समीक्षक स्व. नंददुलारे वाजपेयी। हिंदी साहित्य: बींसवीं शताब्दी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, आधुनिक साहित्य, नया साहित्य: नये प्रश्न इनकी प्रमुख आलोचना पुस्तकें हैं। उन्हें छायावादी कविता के शीर्षस्थ आलोचक तथा शुक्लोत्तर युग के प्रख्यात समीक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
नंददुलारे वाजपेयी जी ने ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ में ‘सूरसागर’ का तथा बाद में ‘गीता प्रेस’, गोरखपुर में ‘रामचरितमानस’ का संपादन किया। वे कुछ समय तक ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के हिन्दी विभाग में अध्यापक तथा कई वर्षों तक ‘सागर विश्वविद्यालय’ के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी रहे। काशी (वर्तमान बनारस) में हिन्दी से एम.ए. करते हुए आचार्य वाजपेयी ने अपने अध्ययन का क्षेत्र विस्तृत किया और यहीं वह प्रशस्त पीठिका निर्मित हुई, जिसे उनके लेखन की आधार भूमि कह सकते हैं। यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि क्योंकि आचार्य जी की समीक्षा का निकट संबंध हिन्दी स्वच्छन्दतावादी (रूमानी) कविता-छायावाद से है और उन्हें प्रायः ‘छायावादी’ अथवा ‘स्वच्छन्दतावादी’ समीक्षक कहा जाता है। १९२९ में एम. ए. करने के उपरांत आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने शोधकार्य आरंभ किया।
‘भारत’ के संपादक के रूप में आचार्य वाजपेयी ने अपनी सतेज प्रतिभा और प्रतिबद्ध निर्भयता का परिचय दिया। ‘सूरसागर’ तथा ‘रामचरितमानस’ का संपादन करते हुए वाजपेयी जी ने मध्यकालीन भक्ति काव्य के साथ भारतीय इतिहास, दर्शन आदि का भी गहरा अध्ययन किया और इस प्रकार अपने चिंतन को जीवंत परंपरा से जोड़ा। शुक्लोत्तर समीक्षा को नया संबल देनेवाले स्वच्छंदतावादी समीक्षक आचार्य वाजपेयी का आगमन छायावाद के उन्नायक के रूप में हुआ था। उन्होंने छायावाद द्वारा हिंदीकाव्य में आए नवोन्मेष का, नवीन सौंदर्य का स्वागत एवं सहृदय मूल्याकंन किया। अपने गुरु आचार्य शुक्ल से बहुत दूर तक प्रभावित होते हुए भी उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र की आधारभूत मान्यताओं के माध्यम से युग की संवेदनाओं को ग्रहण करते हुए, कवियों, लेखकों या कृतियों की वस्तुपरक आलोचनाएँ प्रस्तुत कीं। वे भाषा को साध्य न मानकर साधन मानते थे।