भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक उस्ताद अमीर ख़ाँ

भारतीय शास्त्रीय संगीत के इंदौर घराने के महान गायक उस्ताद अमीर ख़ाँ। उस्ताद अमीर ख़ाँ का जन्म इंदौर में एक संगीत परिवार में हुआ था। पिता शाहमीर ख़ान भिंडी बाज़ार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे। उनके दादा, चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे। अमीर अली की माँ का देहान्त हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे। अमीर और उनका छोटा भाई बशीर, जो बाद में आकाशवाणी इंदौर में सारंगी वादक बने, अपने पिता से सारंगी सीखते हुए बड़े होने लगे। लेकिन जल्द ही उनके पिता ने महसूस किया कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ़ है। इसलिए उन्होंने अमीर अली को ज़्यादा गायन की तालीम देने लगे। ख़ुद इस लाइन में होने की वजह से अमीर अली को सही तालीम मिलने लगी और वो अपने हुनर को पुख़्ता, और ज़्यादा पुख़्ता करते गए।

उस्ताद अमीर ख़ान के गायकी का जहाँ तक सवाल है, उन्होंने अपनी शैली अख़्तियार की, जिसमें अब्दुल वाहिद ख़ान का विलंबित अंदाज़, रजब अली ख़ान के तान और अमन अली ख़ान के मेरुखण्ड की झलक मिलती है। इंदौर घराने के इस ख़ास शैली में आध्यात्मिक्ता, ध्रुपद और ख़याल के मिश्रण मिलते हैं। उस्ताद अमीर ख़ान ने ‘अतिविलंबित लय’ में एक प्रकार की ‘बढ़त’ ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। उस्ताद अमीर ख़ान का यह मानना था कि किसी भी ख़याल रचना में काव्य का बहुत बड़ा हाथ होता है, इस ओर उन्होंने ‘सुर रंग’ के नाम से कई रचनाएँ ख़ुद लिखी हैं। अमीर ख़ान ने तराना को लोकप्रिय बनाया। झुमरा और एकताल का प्रयोग अपने गायन में करते थे, और संगत देने वाले तबला वादक से वो साधारण ठेके की ही माँग करते थे।

उस्ताद अमीर ख़ाँ रूहानी तौर पर अपने आपको अमीर ख़ुसरो के घराने से जोड़ते थे, एक ऐसी परंपरा, जिसमें गाने-बजाने वाले संगीतकार लोग सूफ़ी संतों के आसपास एक अलौकिक झुंड बनाकर बैठे रहते और उनके काउल और बचन गाते। जहां मौसीकी और संगीत को इबादत का एक जरिया माना जाता। और जैसे-जैसे उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब अपने वक़्त के कलाकारों को सुनने लगे, उन्होंने अपनी ही सोच से एक ऐसी शैली का निर्माण किया, जो रियासत के फंडों से कोसों दूर भाग चली आई, जहां संगीत की परिभाषा ध्यान और इबादत ही थी। यहां राजाओं और महाराजाओं को रिझाने वाली बात न थी, न महाराजा की नजर में दूसरे कलाकारों से बाजी मारने वाली बात। न संगीत के सामान का कोई प्रदर्शन भी। देखा जाए तो गायकी की इस अनोखी खोज को यदि एक शब्द में कहा जाए तो वह शब्द था सादगी, जो सूफियों की भाषा में एक जबर्दस्त पहुंचा हुए शब्द माना जाता है। 

उस्ताद अमीर ख़ाँ जी की गायन शैली में कोई रियासत वाली सोच या प्रोत्साहन नहीं था, बल्कि उनकी शैली में एक ऐसा वैराग्य सुनने में आता है, जिससे आसानी से पता चल जाता है कि असल में और आख़िर तक वे सूफ़ी ही थे। उस्ताद अमीर ख़ाँ रूहानी तौर पर अपने आपको अमीर ख़ुसरो के घराने से जोड़ते थे, एक ऐसी परंपरा, जिसमें गाने-बजाने वाले संगीतकार लोग सूफ़ी संतों के आसपास एक अलौकिक झुंड बनाकर बैठे रहते और उनके काउल और बचन गाते। जहां मौसीकी और संगीत को इबादत का एक जरिया माना जाता। और जैसे-जैसे उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब अपने वक़्त के कलाकारों को सुनने लगे, उन्होंने अपनी ही सोच से एक ऐसी शैली का निर्माण किया।

कहा जाता है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को मंदरा ख़याल दिया। ज़रूर, क्योंकि वे कहा करते कि जितनी गहरी आपकी नींव, उतनी ऊंची आपकी इमारत, लेकिन इससे भी ज्यादा बात है कि उन्होंने ख़याल संगीत को एक ऐसा आलाप बताया, जो राग को अवरोही से बराता, जैसे कि घड़ी घूमती है। ध्यान का वसूल भी यही है। और इसी उसूल को साधते-साधते उन्हें अपनी गायकी में ध्यान के आकार मिले, और वे एक अवरोही प्रधान खयाल गाने लगे, जहां राग भी असल में खुलता है। यही वजह थी कि उन्होंने आवाज़ का मंदरा भी खोला, और गायकी बनाई। यह भी जानी-मानी बात है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को ‘पाज’ यानी उसका अनहद फिक्रा दिया, जिससे उनका विलंबित ख़याल बहुत चैनदार सुनने में आता था। इसके पीछे बात यह थी कि संगीत, आत्मा की कभी न मिटने वाली भूख, पहले आत्मा में सोचा जाता है, और फिर उसका साक्षात्कार होता है। इसी कारण खान साहब ने ‘पाज’ को आगे रखकर गेय फिक्रा गाया। उनके संगीत का संचालन ही अनकही से होता, जिसे हम कभी से पहले सुनते। यही उनकी सोच थी। जिस वजह से उनकी इंदौर की गायकी को शास्त्रीय संगीत का पहला अंतर्मुखी घराना कहा जाता है।

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