हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के विद्वान, आचार्य स्व. विष्णु नारायण भातखंडे। पूरी तरह से नि:स्वार्थ और समर्पित संगीत साधक भातखंडे जी ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को वैज्ञानिक पद्धति से व्यवस्थित, वर्गीकृत और मानकीकृत करने का पहला आधुनिक प्रयास किया था। उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर उस्तादों से बंदिशें एकत्रित करने, विभिन्न रागों पर उनसे चर्चा करके उनके मानक रूप निर्धारित करने और संगीतशास्त्र के रहस्यों से पर्दा उठाते हुए अनेक विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें लिखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था।
भातखंडे जी की लगन आरंभ से ही संगीत की ओर थी। उनकी संगीत यात्रा १९०४ में शुरू हुई, जिससे इन्होंने भारत के सैकड़ों स्थानों का भ्रमण करके संगीत सम्बन्धी साहित्य की खोज की। इन्होंने बड़े-बड़े गायकों का संगीत सुना और उनकी स्वर लिपि तैयार करके ‘हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति क्रमिक पुस्तक-मालिका’ के नाम से एक ग्रंथमाला प्रकाशित कराई, जिसके छ: भाग हैं। शास्त्रीय ज्ञान के लिए विष्णुनारायण भातखंडे ने हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, जो हिन्दी में ‘भातखंडे संगीत शास्त्र’ के नाम से छपी थी, के चार भाग मराठी भाषा में लिखे। संस्कृत भाषा में भी इन्होंने ‘लक्ष्य-संगीत’ और ‘अभिनव राग-मंजरी’ नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन संगीत की विशेषताओं तथा उसमें फैली हुई भ्राँतियों पर प्रकाश डाला। विष्णुनारायण भातखंडे ने अपना शुद्ध ठाठ ‘बिलावल’ मानकर ठाठ-पद्धति स्वीकर करते हुए दस ठाठों में बहुत से रागों का वर्गीकरण किया।
उनकी ऐतिहासिक संगीत यात्रा दक्षिण की ओर से शुरू हुई। वहाँ के बड़े-बड़े नगरों में स्थित पुस्तकालयों में पहुंचकर संगीत सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन किया। वे दक्षिण भारत के अनेक संगीत विद्वानों के साथ संगीत चर्चा में शामिल हुए। वहीं पर इन्हें पं. वेंकटमखी के ७२ थाटों का भी पहली बार पता चला। इसके बाद पंडित जी ने उत्तरी तथा पूर्वी भारत की यात्रा की। इस यात्रा में उन्हें उत्तरी संगीत-पद्धति की विशेष जानकारी हुई। विविध कलावंतों से इन्होंने बहुत से गाने भी सीखे और संगीत-विद्वानों से मुलाकात करके प्राचीन तथा अप्रचलित रागों के सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी प्राप्त की। इसके बाद इन्होंने विजयनगरम्, हैदराबाद, जगन्नाथपुरी, नागपुर और कलकत्ता की यात्रायें कीं तथा सन् १९०८ में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के विभिन्न नगरों का दौरा किया।
देश भर के राजकीय, देशी राज्यांतर्गत, संस्थागत, मठ-मंदिर-गत और व्यक्तिगत संग्रहालयों में हस्तलिखित संगीत ग्रंथों की खोज और उनके नामों का अपने ग्रंथों में प्रकाशन, देश के अनेक हिंदू मुस्लिम गायक वादकों से लक्ष्य-लक्षण-चर्चा-पूर्वक सारोद्धार और विपुलसंख्यक गेय पदों का संगीत लिपि में संग्रह, कर्नाटकीय मेलपद्धति के आदर्शानुसार राग वर्गीकरण की दश थाट् पद्धति का निर्धारण किया। इन सब कार्यो के निमित्त भारत के सभी प्रदेशों का व्यापक पर्यटन किया। संस्कृत एवं उर्दू, फ़ारसी, संगीत ग्रंथों का तत्तद्भाषाविदों की सहायता से अध्ययन और हिंदी अंग्रेजी ग्रंथों का भी परिशीलनकर। अनेक रागों के लक्षणगीत, स्वरमालिका आदि की रचना और तत्कालीन विभिन्न प्रयत्नों के आधार पर सरलतानुरोध से संगीत-लिपि-पद्धति का स्तरीकरण किया। संगीत की उन्नति और प्रचार के लिये संगीत सम्मेलन आयोजित करने के साथ ही इन्होंने कई जगह संगीत महाविद्यालय भी स्थापित किए। इनमें लखनऊ का मैरिस म्यूजिक कालेज प्रमुख है यह संस्थान अब भातखंडे संगीत विद्यापीठ के नाम से जाना जाता है।