बांग्ला भाषा के सबसे जनप्रिय रवीन्द्रोत्तर कवी एवं लेखक स्व. जीवनानंद दास। वे ऐसे कवि थे, जिन्होंने कविता में वर्णनात्मक शैली के स्थापत्य का सूत्रपात किया। उनके उपन्यास और कहानियाँ बंगाल क्षेत्र के लोगों के बीच ख़ास स्थान रखते हैं। रबीन्द्रनाथ टागोर जी के रुमानी कविता के प्रभावको अस्वीकार कर उनहोनें अपनी ही एक अलग काव्यभाषा को जन्म दिया जो पहले पाठक-समाज को गवारा नहीं था। परन्तु २०वीं सदी के शेष भाग से वह उभर कर आए और पाठक के दिलोदिमाग में छा गए।
आधुनिक बांग्ला कविता को जीवनानन्द दास का योगदान अप्रतिम है। प्रकृति से उनके गहरे तादात्म्य ने बांग्ला कविता को कई अनूठे बिंब दिये। जीवनानंद दास समर्थ गद्यकार भी थे। जीवनानंद दास की कविता ने रवींद्रनाथ के बाद बांग्लाभाषी समाज की कई पीढ़ियों को चमत्कृत किया और उनकी कविता ‘बनलता सेन’ तो मानों अनिवार्य रूप से कंठस्थ की जाती रही है। जीवनानंद दास ने बांग्ला भाषा में वर्णनात्मक शैली के स्थापत्य का सूत्रपात किया, जिसने एकरैखिक प्रगतिशील समय को उलट दिया। 1940 में उन्होंने’पैराडाइम’ शीर्षक से ‘परिचय’ पत्रिका में एक कविता लिखी थी, जिसमें तार्किक विचलन, असंतुलन, व्यंग्य, उल्लास, आवेग, बहुरैखिकता, गत्यात्मक बिम्ब, केंद्र रहितता सहित उत्तर आधुनिक पाठ की सभी विशेषताएँ थीं। वे पहले बांग्ला कवि थे, जिन्होंने ‘विरोधाभासों’ का अतिशय इस्तेमाल किया था।
उन्हें आज़ादी से पहले अपनी एक कविता में ‘वनलता सेन’ के रूप में एक ऐसी शांतिदायिनी युवती को रचा, जो कवि को कहीं मिली थी। ‘चारों ओर बिछा जीवन के ही समुद्र का फेन, शांति किसी ने दी तो वह थी वनलता सेन।‘ यही वनलता सेन आगे चलकर आलोक श्रीवास्तव से लेकर अनेक कवियों के यहां विचरण करती नज़र आती है।