ये सागर भी मेरी तरह है – बेचैन, आवारा…
न जाने क्यों बस एक किनारे को छूने कि कोशिश में उफनता रहता है।
पता नहीं छू कर उसे क्यों लौट जाता है।
शायद वह जानता है की अगर वह किनारे से मिल गया
तो किनारे का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा।
इसलिए वो ख़ुद को समेट लेता है।
मगर ये नदी बिल्कुल बेफ़िक्र है –
शांत, फिर भी अल्हड़।
बहे चली जाती है…
किसी के होने का उसे एहसास नहीं, बस वो अपने में मदमस्त है।
दिल इसके क़रीब आकर इसी का हो जाता है।
इसी कि धारा मे कहीं बह निकलता है।
एक अजीब सा सुकून है इसके प्रवाह मे।