हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार और संपादक हरिकृष्ण देवसरे। अपने लेखन में प्रयोगधर्मिता के लिए मशहूर देवसरे ने आधुनिक संदर्भ में राजाओं और रानियों तथा परियों की कहानियों की प्रासंगिकता के सवाल पर बहस शुरू की थी। उन्होंने भारतीय भाषाओं में रचित बाल-साहित्य में रचनात्मकता पर बल दिया और बच्चों के लिए मौजूद विज्ञान-कथाओं और एकांकी के ख़ालीपन को भरने की कोशिश की। हिंदी बालसाहित्य पर पहला शोधप्रबंध, प्रथम पांक्तेय संपादक, प्रथम पांक्तेय आलोचक तथा प्रथम पांक्तेय रचनाकार थे हरिकृष्ण देवसरे। उन्हें बालसाहित्यकार कहलवाने में जरा-भी हिचकिचाहट नहीं थी। जब और जहां भी अवसर मिले बालसाहित्य में नई परंपरा की खोज के लिए सतत आग्रहशील रहे। पचास से अधिक वर्षों से अबाध मौलिक लेखन, कई दर्जन पुस्तकें, उत्कृष्ट पत्रकारिता, संपादन, समालोचना और अनुवादकर्म उनके लेखन कौशल को दर्शाता है। कुल मिलाकर बालसाहित्य के नाम पर अपने आप में एक संस्था, एक शैली, एक आंदोलन थे हरिकृष्ण देवसरे। उस जमाने में जब बालसाहित्य अपनी कोई पहचान तक नहीं बना पाया था, लोग उसे दोयम दर्जे का साहित्य मानते थे, अधिकांश साहित्यकार स्वयं को बालसाहित्यकार कहलवाने से भी परहेज करते; और जब बच्चों के लिए लिखना हो तो अपना ज्ञान, उपदेश और अनुभव-समृद्धि का बखान करने लगते थे, उन दिनों एक बालपत्रिका की संपादकी के लिए जमी-जमाई सरकारी नौकरी न्योछावर कर देना, फिर बच्चों की खातिर हमेशा-हमेशा के लिए कलम थाम लेना, परंपरा का न अतार्किक विरोध, न अंधसमर्पण। डॉ. देवसरे ने बालसाहित्य की लगभग हर विधा में लिखा। हर क्षेत्र में अपनी मौलिक विचारधारा की छाप छोड़ी। लुभावनी परिकल्पनाएं गढ़ीं, मगर उनकी छवि बनी एक वैज्ञानिक सोच, बालसाहित्य के नाम पर परीकथाओं और जादू-टोने से भरी रचनाओं के विरोधी बालसाहित्यकार की। ऐसा भी नहीं है कि वे बालसाहित्य की पुरातन परंपरा को पूरी तरह नकारते हों, परीकथाओं की मोहक कल्पनाशीलता से उन्हें जरा-भी मोह न हो, उनकी सहजता और पठनीयता उन्हें लुभाती न हो, वस्तुतः वे परंपरा के नाम पर भूत-प्रेत, जादू-टोने, तिलिस्म जैसी अतार्किक स्थापनाओं, इनके आधार पर गढ़ी गई रचनाओं का विरोध करते हैं। वे उस फंतासी को बालसाहित्य से बहिष्कृत कर देना चाहते हैं, जिसका कोई तार्किक आधार न हो। जो बच्चों को भाग्य के भरोसे जीना सिखाए, चमत्कारों में उनकी आस्था पैदा करे, जीवन-संघर्ष में पलायन की शिक्षा दे। परीकथाओं में वे वैज्ञानिक दृष्टि के पक्षधर है। ऐसी परीकथाओं के समर्थक हैं, जो परंपरा का अन्वेषण करती, बालमन में नवता का संचार करती हों, जो बच्चे की जिज्ञासा को उभारें, उनकी कल्पनाओं में नूतन रंग भरें, जिनके लिए गिल्बर्ट कीथ चेटरसन ने कहा था कि- परीकथाओं में व्यक्त कल्पनाशीलता सत्य से भी बढ़कर हैं, इसलिए नहीं कि वह हमें सिखाती हैं कि राक्षस को खदेड़ना संभव है, बल्कि इसलिए कि वे हमें एहसास दिलाती हैं कि दैत्य को दबोचा भी जा सकता है।