आज साहित्यकालप पर हम आधुनिक कन्नड़ कहानी के जनक, कवि, उपन्यासकार, नाटककार, अनुवादक और आलोचक स्व. मास्ति वेंकटेश अय्यंगार। उनका जन्म कर्नाटक के कोलार जिले में ६ जून १८९१ में हुआ था।
मास्ति उनके गुरु बी.एम. श्री से बहुत प्रभावित थे। जब श्रीजी ने कन्नड साहित्य के पुनरुत्थान करने के लिए उन्हें बुलाया, मास्तीजी पूरी तरह से संचलन में शामिल हो गये, बाद में इस संचलन को नवोदय का नाम दिया गया, जिसका मतलब ‘पुनर्जन्म’ है। वे अपनी सारी रचनाओं को ‘श्रीनिवास’ उपनाम से लिखते थे। मास्तीजी को प्यार से मास्ति कन्नडदा आस्ती कहा जाता था, क्योंकि उनको कर्नाटक का एक अनमोल रत्न माना जाता था। मैसूर के महाराजा नलवाडी कृष्णराजा वडियर ने उनको राजसेवासकता के पदवी से सम्मानित किया था। वे सामाजिक, दार्शनिक और सौंदर्यात्मक विषयों पर अपने कविताओं को लिखा करते थे। उन्होने १९१० में अपने पहले क्षुद्र कहानी रंगन मदुवे को प्रकाशित किया, उनके आखिरी कथा मातुगारा रामन्ना को सन १९८५ में प्रकाशित किया गया था। केलवु सन्ना कथेगलु उनके सबसे स्मरणीय लेख था।
मास्ति जी के दो ऐतिहासिक उपन्यास ‘चेन्नबसवनायक’ और ‘चिक्क वीरराजेंद्र’ अत्यंत प्रसिद्ध हैं। कन्नड़ के बहुत कम उपन्यासों में समाज और बहुमुखी सामाजिक संबंधों का इन दो उपन्यासों जैसा सूक्ष्म एवं गहन चित्रण हुआ है। इसके बावजूद मास्ति जी मात्र उत्तेजित एवं प्रेरित करने के लिए प्राचीन सामन्तवादी समाज की पुनर्सृष्टि करते प्रतीत नहीं होते। उन्होंने इनमें एक राज्य के पतन एवं विघटन का अध्ययन किया और स्वयं स्त्री-पुरुषों में भी उनके कारण खोजे। उनकी गद्यशैली की विशेषता संयम एवं शालीनता थी और भाषा बोलचाल की थी। इन्हीं कारणों से उनका सरल वर्णन भी गहन अनुभव की महत्ता प्राप्त कर लेता था। मास्ति जी की शैली को कम से कम शब्दों में एक संपूर्ण अनुभव संप्रेषित करने की विलक्षण क्षमता प्राप्त थी। उनके ‘नवरात्रि’ एवं ‘श्रीरामपट्टाभिषेक’ उनके दो महत्त्वपूर्ण काव्य हैं।
मास्ति वेंकटेश अय्यंगार जी की आस्था किसी संकीर्ण धार्मिक मताग्रह से नहीं जुड़ी थी। उन्होंने बुद्ध, ईसा, मुहम्मद तथा रामकृष्ण परमहंस, सभी पर पूर्ण श्रद्धा के साथ लिखा। उनकी आस्था उन्हें नैतिक जगह की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए उत्प्रेरित करती थी, जिसका हमारी संस्कृति की मनीषा से पूर्व सामंजस्य है। यह आस्था जीवन मूल्य एवं अर्थवत्ता की ओर गतिशील रहती है और उनका लेखन मूलभूत मानव मूल्यों का एक संवाहक बन जाता है। यही कारण है कि मास्ति उल्हास और कुशलता से ऐसे चरित्रों की रचना करते थे, जिनमें मनुष्य की अंतर्दृष्टि किसी भी आवेश द्वारा धूमिल नहीं पड़ती।
वे भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किये गये हैं। यह सम्मान पाने वाले वे कर्नाटक के चौथे लेखक थे।