– सविता टिळक / कविता /
कहते है लोग ज़िंदगी एक जुआ।
हारे कौन और कौन जीते सताए यहीं चिंता।
लुभाता है मन को बाहरी दिखावा।
नही समझते यह केवल मोह माया का धुआँ।
जगती हैं चाह हर एक सुख पाने की।
और बढती हैं ईर्ष्या सबकुछ हथियाने की।
हर वक़्त सताए जीत की चिंता।
पाने हर खुशी, अपनाते गुनाह का रास्ता।
ढाॅंते सब पर जुर्म, अनगिनत।
भुला के सारी इन्सानियत।
बनके अमानुष, पार करते हदे सारी।
नही याद रहता, कभी उन्होंने भी इन्सान की जिंदगी गुजारी।
बीतते समय के साथ लगने लगता सब व्यर्थ।
ढूंढ़ने लगते, क्या है जीवन का सत्यार्थ।
करने लगते “त्राही माम” की पुकार।
फिर परमात्मा आते ज़मीं पर, बनके एक कृष्ण, एक बुद्ध का अवतार।
देते सबको सीख अमन, शांती की।
फिर शुरू होती खोज जीवन के सच की।