रुपा वधावन / कविता /
चेहरों की घनी भीड़ में असली चेहरा कहीं विलीन हो गया।
मुखौटों की इस दुनिया में समाचार बन कर रह गया।
सभ्यता-शालीनता का लबादा ओढे़ कई संस्कारी मिल जाएँगे।
पर भीतर से मायूस-व्यथित-ऊर्जाहीन ही पाएँगे।
मृगतृष्णा के उगते कैकटस सा अवसाद पनपता है।
कमज़ोरों-लाचारों पर भीतर का आक्रोश निकलता है।
चकाचौंध के माया जाल मेंअंदर दुबका शैतान जागता है।
कुकृत्यों के शालीन बाज़ार में हरपल ईमान बिकता है।
खोल दो सीलन भरे इन दरवाज़ो को,
कर दो बिदा मन की लाचारी को।
चेहरों की सघन भीड़ में अपने चेहरे की पहचान करो,
आत्मदर्पण में खुद से ही, कुछ तो, सवाल करो?