हिंदी साहित्य के भारतेन्दु मण्डल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार स्व. प्रताप नारायण मिश्र। वह भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथी, उनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने आप को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी ‘प्रति-भारतेंदु’ और ‘द्वितीय हरिश्चंद्र कहे जाने लगे थे। वे हिन्दी खड़ी बोली और भारतेन्दु युग के उन्नायक भी कहे जाते हैं।
मिश्र जी द्वारा लिखे हुए निबंधों में विषय की पर्याप्त विविधता है। देश-प्रेम, समाज-सुधार एवं साधारण मनोरंजन आदि उनके निबंधों के मुख्य विषय थे। उन्होंने ‘ब्राह्मण’ नामक मासिक पत्र में हर प्रकार के विषयों पर निबंध लिखे थे।
प्रताप नारायण मिश्र छात्रावस्था से ही ‘कविवचनसुधा’ के गद्य-पद्य-मय लेखों का नियमित पाठ करते थे, जिससे हिन्दी के प्रति उनका अनुराग उत्पन्न हुआ। लावनौ गायकों की टोली में आशु रचना करने तथा ललित जी की रामलीला में अभिनय करते हुए उनसे काव्य रचना की शिक्षा ग्रहण करने से वह स्वयं मौलिक रचना का अभ्यास करने लगे। इसी बीच वह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के संपर्क में आए। उनका आशीर्वाद तथा प्रोत्साहन पाकर वे हिन्दी गद्य तथा पद्य रचना करने लगे। १८८२ के आस-पास “प्रेमपुष्पावली” प्रकाशित हुआ और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो प्रताप नारायण मिश्र का उत्साह बहुत बढ़ गया।
खड़ी बोली के रूप में प्रचलित जनभाषा का प्रयोग प्रताप नारायण मिश्र ने अपने साहित्य में किया। प्रचलित मुहावरों, कहावतों तथा विदेशी शब्दों का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। भाषा की दृष्टि से मिश्र जी ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का ही अनुसरण किया और जन साधारण की भाषा को अपनाया। भारतेन्दु जी के समान ही मिश्र जी भाषा कृतिमता से दूर हैं। वह स्वाभाविक हैं। पंडिताऊपन और पूर्वीपन अधिक है। उसमें ग्रामीण शब्दों का प्रयोग स्वच्छंदता पूर्वक हुआ है। संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी, आदि के प्रचलित शब्दों को भी ग्रहण किया गया है। भाषा विषय के अनुकूल है। गंभीर विषयों पर लिखते समय और गंभीर हो गई है। कहावतों और मुहावरों के प्रयोग में मिश्र जी बड़े कुशल थे। मुहावरों का जितना सुंदर प्रयोग उन्होंने किया है, वैसा बहुत कम लेखकों ने किया है।
प्रताप नारायण मिश्र की शैली में वर्णनात्मक, विचारात्मक तथा हास्य विनोद शैलियों का सफल प्रयोग किया गया है। इनकी शैली को दो प्रमुख प्रकारों में बाँटा जा सकता है :
विचारात्मक शैली
साहित्यिक और विचारात्मक निबंधों में मिश्र जी ने इस शैली को अपनाया है। कहीं-कहीं इस शैली में हास्य और व्यंग्य का पुट मिलता है। इस शैली की भाषा संयत और गंभीर है। ‘मनोयोग’ शीर्षक निबंध का एक अंश इस प्रकार है- “इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर रूपी नगर का राजा है। और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छ रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावमान रहता है।”
व्यंग्यात्मक शैली
इस शैली में मिश्र जी ने अपने हास्य और व्यंग्य पूर्ण निबंध लिखे हैं। यह शैली मिश्र जी की प्रतिनिधि शैली है, जो सर्वथा उनके अनुकूल है। वे हास्य और विनोद प्रिय व्यक्ति थे। अतः प्रत्येक विषय का प्रतिपादन हास्य और विनोद पूर्ण ढंग से करते थे। हास्य और विनोद के साथ-साथ इस शैली में व्यंग्य के दर्शन होते हैं। विषय के अनुसार व्यंग्य कहीं-कहीं बड़ा तीखा और मार्मिक हो गया है। इस शैली में भाषा सरल, सरस और प्रवाहमयी है। उसमें उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और ग्रामीण शब्दों का प्रयोग हुआ है। लोकोक्तियाँ और मुहावरों के कारण यह शैली अधिक प्रभावपूर्ण हो गई है।
भारतेंदु युगीन कवि का संकलन
भारतेंदु युगीन कवि का संकलन