निहायत ही ज़रुरी है प्रेम…

– राजीव रोहित / कविता /

नदी है प्रेम लहरों का
लहरों में समेटे
अपठित इतिहास
दर्द में डूबे हुए
कई प्रेम पात्रों के
कच्चे पक्के किस्से
सुनाते हुए कई
खूबसूरत किताबों की
खूबसूरत सदी है प्रेम

सबक कोई क्यों ले
क्यों न उन पलों को
जी भरकर जी ले
जो हमें प्रेम में
मिल जाएंगे
बिना किसी योजना के

किसी संकीर्ण गली में
जब मिलती थी
खुली हुई खिड़कियां
जहां बैठी होती थी
दुनिया की सबसे
सुंदर लड़की

जब किसी पुष्प उद्यान में
दुष्यंत की तलाश में
आती है कोई
अद्वितीय सुंदरी
शकुंतला जैसी
दुष्यंत किसी और की
आंखों में मिले
जी भरकर जी लेती है
अपनी तमन्नाएं
कंधे पर सिर रखकर
सोचती है
ये भी है दुनिया
जिससे वो थी
अब तक अपरिचित
इसे ही कहते हैं प्रेम

रसोई में स्त्रियां
पकाती हुई चांद
ढूंढती हैं प्रेम
हक समझकर
सोचती हैं
एक बार अवश्य
दुनिया में सबसे
पहला प्रेम किसने
किया होगा
इस चिंतन में उनका प्रेम
तैयार होता है और
कैद हो जाता है
खाने के डिब्बे में

प्रेम अब भी
है विषय अनुसंधान का
क्या है
कहाँ है
क्यों है
कब तक रहेगा
मन की नदी में छिपी
प्रश्नों के भंवर में
जहां से निकलने की
हम जान चुके हैं कला

फिर भी प्रेम है तो
अनेक भाषाओं में
सुंदर शब्दों से गढ़े
परिभाषाओं में….
विरह मिलन के संयोग में
आरोप प्रत्यारोप के
व्याकरण शास्त्र की
व्याकुलता के बंधे योग में

फिर भी है तो प्रेम
इसे रहना ही होगा
हर हाल में उपस्थित
दुनिया कायम रहे
इसके लिए
ज़रुरी भी तो
है प्रेम…

विसंगतियां ढूंढते हुए
आप सहमत हों या
रहें असहमत भी
तो क्या…
निहायत ही
जरूरी है प्रेम…

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