हिन्दी भाषा की उन्नति एवं उसके प्रचार-प्रसार में अपना जीवन व्यतीत करनेवाले महान लेखक शिवपूजन सहाय

हिंदी साहित्य के उपन्यासकार, कहानीकार और लेखक स्व. शिवपूजन सहाय। शिवपूजन सहाय का हिन्दी के गद्य साहित्य में एक विशिष्ट स्थान है। उनकी भाषा बड़ी सहज थी। इन्होंने उर्दू के शब्दों का प्रयोग किया है और प्रचलित मुहावरों के सन्तुलित उपयोग द्वारा लोकरुचि का स्पर्श करने की चेष्टा की है। शिवपूजन सहाय ने कहीं-कहीं अलंकार प्रधान अनुप्रास बहुल भाषा का भी व्यवहार किया है और गद्य में पद्य की सी छटा उत्पन्न करने की चेष्टा की है। भाषा के इस पद्यात्मक स्वरूप के बावज़ूद शिवपूजन सहाय के गद्य लेखन में गाम्भीर्य का अभाव नहीं है।

शिवपूजन सहाय की शैली ओज-गुण सम्पन्न थी और यत्र-तत्र उसमें वक्तृत्व कला की विशेषताएँ उपलब्ध होती थी। शिवपूजन सहाय का समस्त जीवन हिन्दी की सेवा की कहानी है। इन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग हिन्दी भाषा की उन्नति एवं उसके प्रचार-प्रसार में व्यतीत किया है। ‘बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ तथा ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ नामक हिन्दी की दो प्रसिद्ध संस्थाएँ इनकी कीर्ति कथा के अमूल्य स्मारक के रूप में हैं। इनके संस्मरण में बिहार से स्मृति ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ है। शिवपूजन सहाय का हिन्दी के गद्य साहित्य में एक विशिष्ट स्थान है। उनकी भाषा बड़ी सहज थी। इन्होंने उर्दू के शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया है और प्रचलित मुहावरों के सन्तुलित उपयोग द्वारा लोकरुचि का स्पर्श करने की चेष्टा की है। शिवपूजन सहाय ने कहीं-कहीं अलंकार प्रधान अनुप्रास बहुल भाषा का भी व्यवहार किया है और गद्य में पद्य की सी छटा उत्पन्न करने की चेष्टा की है। भाषा के इस पद्यात्मक स्वरूप के बावज़ूद शिवपूजन सहाय के गद्य लेखन में गाम्भीर्य का अभाव नहीं है। शिवपूजन सहाय की शैली ओज-गुण सम्पन्न है और यत्र-तत्र उसमें वक्तृत्व कला की विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं।

शिवपूजन सहाय की लिखी हुई पुस्तकें विभिन्न विषयों से सम्बद्ध हैं तथा उनकी विधाएँ भी भिन्न-भिन्न हैं। ‘बिहार का बिहार’ बिहार प्रान्त का भौगोलिक एवं ऐतिहासिक वर्णन प्रस्तुत करती है। ‘विभूति’ में कहानियाँ संकलित हैं। ‘देहाती दुनियाँ’ (१९२६ ई.) प्रयोगात्मक चरित्र प्रधान औपन्यासिक कृति है। इसकी पहली पाण्डुलिपि लखनऊ के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में नष्ट हो गयी थी। इसका शिवपूजन सहाय जी को बहुत दु:ख था। उन्होंने दुबारा वही पुस्तक फिर लिखकर प्रकाशित करायी, किन्तु उससे शिवपूजन सहाय को पूरा संतोष नहीं हुआ। शिवपूजन सहाय कहा करते थे कि – “पहले की लिखी हुई चीज़ कुछ और ही थी।” ‘ग्राम सुधार’ तथा ‘अन्नपूर्णा के मन्दिर में’ नामक दो पुस्तकें ग्रामोद्धारसम्बन्धी लेखों के संग्रह हैं। इनके अतिरिक्त ‘दो पड़ी’ एक हास्यरसात्मक कृति है, ‘माँ के सपूत’ बालोपयोगी तथा ‘अर्जुन’ और ‘भीष्म’ नामक दो पुस्तकें महाभारत के दो पात्रों की जीवनी के रूप में लिखी गयी हैं। शिवपूजन सहाय ने अनेक पुस्तकों का सम्पादन भी किया, जिनमें ‘राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, (पटना) ने इनकी विभिन्न रचनाओं को अब तक चार खण्डों में ‘शिवपूजन रचनावली’ के नाम से प्रकाशित किया है।
ग्राम सुधार’ तथा ‘अन्नपूर्णा के मन्दिर में’ नामक दो पुस्तकें ग्रामोद्धारसम्बन्धी लेखों के संग्रह हैं। इनके अतिरिक्त ‘दो पड़ी’ एक हास्यरसात्मक कृति है, ‘माँ के सपूत’ बालोपयोगी तथा ‘अर्जुन’ और ‘भीष्म’ नामक दो पुस्तकें महाभारत के दो पात्रों की जीवनी के रूप में लिखी गयी हैं। शिवपूजन सहाय ने अनेक पुस्तकों का सम्पादन भी किया, जिनमें ‘राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, (पटना) ने इनकी विभिन्न रचनाओं को अब तक चार खण्डों में ‘शिवपूजन रचनावली’ के नाम से प्रकाशित किया है।

शिवपूजन सहाय का यह कहना था कि “भारत की साधारण जनता तक पहुँचने के लिए दैनिक पत्र ही सर्वोत्तम साधन हैं। देश-देशांतर के समाचारों के साथ भाषा और साहित्य का संदेश भी दैनिक पत्रोंद्वारा आसानी से जनता तक पहुँचा सकते हैं और पहुँचाते आये हैं। कुछ दैनिक पत्र तो प्रति सप्ताह अपना एक विशेष संस्करण भी निकालते हैं, जिसमें कितने ही साप्ताहिकों और मासिकों से भी अच्छी साहित्यिक सामग्री रहती है। दैनिक पत्रों द्वारा हम रोज-ब-रोज की राजनीतिक प्रगति का विस्तृत विवरण ही नहीं पाते, बल्कि समाज की वैचारिक स्थितियों का विवरण भी पाते हैं। हालांकि कभी-कभी कुछ साहित्यिक समाचारों को पढ़कर ही संतोष कर लेते हैं। भाषा और साहित्य से संबंध रखने वाली बहुत कुछ ऐसी समस्याएँ हैं, जिनकी ओर जनता का ध्यान आकृष्ट करने की बड़ी आवश्यकता है, किंतु यह काम दैनिक पत्रों ने शायद उन साप्ताहिकों व मासिकों पर छोड़ दिया है, जिनकी पहुँच व पैठ जनता में आज उतनी नहीं है, जितनी दैनिक पत्रों की। दैनिक पत्र आजकल नित्य के अन्न-जल की भांति जनता के जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। यद्यपि ये पत्र भाषा-साहित्य संबंधी प्रश्नों को भी जनता के सामने रोज-रोज रखते जाते, तो निश्चित रूप से कितने ही अभाव दूर हो जाते।”

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